शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी--21 से अन्ततक-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --21
प्रांतसाहेब का आधा समय कोर्ट वर्क करने में निकल जाता है क्योंकि कई कानूनों के अंतर्गत केसों की सुनवाई का काम प्रांत अधिकारी का है। कई सुनवाईयाँ तहसीलदार के अधिकार कक्ष में पडती हैं- वे भी अपील के लिये प्रांत अधिकारी के पास आती हैं। इसी से पुराने जमाने के तहसीलदारों के कई अच्छे अच्छे निर्णय पढने का सौभाग्य मिला। कई बार मैं अपील न होने पर उन्हे निकाल कर पढती थी। सुंदर अक्षर लिये उनकी कलम जो एक बार उठती तो बिना किसी कांट छांट के पन्ने के पन्ने भर कर लम्बी लम्बी जजमेंट लिख जाती। उनमें कानून की बारीक पेचिदगियों का विवेचन होता था, खास कर जमीन और लगान से जुडे कानूनों का। इसी पढाई के कारण मुझे कई बारीकियाँ समझ आई और मैं भी विवेचना पूर्वक जजमेंट लिखने लगी। मेरे कई निर्णय अपील होते होते हाईकोर्ट तक भी पहुँचे हैं और वहाँ भी मेरे निर्णयों पर सहमति जताई गई- ऐसे कई निर्णय मेरी याद में बसे हुए हैं और संतोष देते हैं। तहसीलदार, प्रांतअधिकारी, कलेक्टर और रेवेन्यू कमिश्नर को मिलाकर करीब दो सौ कानूनों के अंतर्गत कोर्ट के रूप में काम करना पडता है। कानूनी किताबें लिखने वालों का, खासकर जजमेंट कम्पाईल करने वाली संस्थाओं का ध्यान अभी तक इनकी ओर क्यों नही गया यह मेरी समझ से बाहर है।
उन दिनों हवेली तहसिल में विठ्ठलराव सातव जिला परिषद अध्यक्ष, अण्णासाहेब मगर पिंपरी चिंचवड नगराध्यक्ष, भोर तहसील में अनंत थोपटे, मुलशी तहसील में नामदेव मते, विदुरा नवले, मामासाहेब मोहोळ, मावळ तहसील में दाभाडे सरकार आदि नेतागण थे- बाद में कई विधान सभा सदस्य हुए अब कईयों की दूसरी पीढी राजनीति में उतर गई है। एक तरफ उनकी राजनैतिक चालें और बढता हुआ कद देखना उनके अच्छे कामों में सहयोग देकर संतोष का अनुभव करना- दूसरी ओर अपने आपको उनसे समुचित दूरी पर रखकर निष्पक्ष निर्णय करना यह एक टाईट-रोप-वॉकिंग ही था।
तब कात्रज दूध डेअरी नई नई आगे आ रही थी। वहाँ नया ऑओमॅटिक प्लांट लगना था ताकि प्लास्टिक की थैलियों में दूध भरने पर उसकी सिलाई मशीन ही कर दे। उद्घाटन के लिये तत्कालिन सहकार मंत्री वसंतदादा पाटील आए। मेरा परिचय सुनकर बोले- आइये प्रांतसाहब, थोडा आपकी सबडिविजन की प्रशासकीय जानकारी मुझे दीजिये। फिर अलग से दस पंद्रह मिनट मेरे साथ चर्चा कर मेरे मत सुनते रहे। आठ वर्ष बाद मैं उनके जिले सांगली में कलेक्टर थी तो देखा कि कात्रज डेडरी की हमारी मुलाकात और तब की गई चर्चा के मुद्दे उनके स्मरण में थे।
यह उस काल की बात थी जब राजकीय नेता योजना निर्धारण और परिशीलन में तमाम मतभेदों के बावजूद प्रशासकीय अधिकारियों की बात सुनते थे और उस पर गौर करते थे। लेकिन अगले दस-पंद्रह वर्षों में इन रिश्तों में काफी गिरावट आई।

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दौरे पर जाने के बाद मरे ठहरने के ठिकाने ही मेरे लिये 'घर' हुआ करते थे। अक्सर ये किसी नदी पर बने बांध के साथ लगे हुए रेस्ट हाउस होते थे। मेरी सारी नदियाँ भुशीवना, इन्द्रायणी, मुला, अंबा, मुठा, गुंजवणी, वेळवंडी, नीरा, कापूर ओहोल का झरना और उन पर बने भाटघर, पानशेत, वरसगांव, खडकवासला, मुलशी, कालेकॉलनी, वलवण, भुशी, शिरोटा बांधों के रेस्ट हाऊस आज भी मेरी याद में हैं। पुणे से भोर तहसील जाते हुए हाईवे पर कामथडी रेस्ट हाऊस मेरा प्रिय ठिकाना था। कई वर्षों के बाद हाल में भी मैंने पाया कि वहाँ के पुराने खानसामा इत्यादि मुझे पहचानते हैं।
अपनी प्रांत अफसरी में गांवो के इन्स्पेक्शन के अलावा केवल 'भटकना' भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी से आप अपने इलाके की जानकारी लेते हैं। भटकने के लिये मुझे भोर, वेंल्हा मे हिर्डोशी का जंगल, नागेश्र्वर, बनेश्र्वर तथा रायरेश्र्वर के मंदिर, वेल्हा तहसिल कार्यालय से लगा हुआ तोरणा गड, हवेली में पानशेत बांध के पीछे फैला शिरकोली जंगल परिसर और वहाँ बसने वाले पचास-साठ गांव जो मेनलॅण्ड से आज भी कटे हुए हैं, सिंहगड, कार्ला और भाजे में बने बुद्ध विहार, तुंग और तिकोना पहाड जो डेक्कन प्लॅटू की 'नाक' माने जाते हैं, एकवीरा मंदिर आदि पसंद थे। उधर पुणे से पश्च्िाम की तरफ ज्ञानेश्र्वर की जन्म और समाधी स्थली आलंदी, थेऊर और रांजणगांव और चिंचवड के गणपति मंदिर, भीमा शंकर का शिव- स्थान और वन-परिसर आदि थे। दूर दूर के गांवो तक दौरा होता था। कभी फसल की पैसेवारी तय करनी थी, कभी जनगणना, कभी लगान वसूली, कहीं रेशन शॉप, कहीं बाउंडरी सर्वे का काम, कभी पोलिस स्टेशन, की व्हिजिट, कभी गांव का दफ्तर-वाचन का कार्यक्रम। कभी किसी व्ही आय पी व्हिजिट के लिये भी।
रायरेश्र्वर के मंदिर में जब मैं सबसे पहले गई तो सारा शरीर झनझना उठा था। यही वह जगह थी जहाँ शिवाजी ने शिवजी के सम्मुख बेल भंडारा हाथ में उठाकर शपथ ली कि वे स्वराज्य स्थापना और उसकी रक्षा के लिये जान लगा देंगे। उसके तत्काल बाद तेरह साल की वयस में उन्होंने तोरणगड जीता था। आज रायरेश्र्वर का मंदिर एक अनजाना, पुराना, ढहता हुआ सा मंदिर है। हालाँकि महाराष्ट्र के सभी स्कूलों के इतिहास में रायरेश्र्वर की महत्ता पढी पढाई जाती है लेकिन वास्तव में विद्यार्थियों को इन प्रेरणा स्थलों से अवगत नही कराया जाता।
भोर, वेल्हा, मुलशी और मावळ, चारो तहसिलों में एको टूरिझम बढाया जा सकता है। हमारे टूरिझम की नीति भी विचित्र है जो हर जगह केवल फाइव्ह स्टार टूरिस्टों के लिये बनाई जाती है। देखा जाय तो मुंबई या दिल्ली के फाइव्ह स्टर हॉटेल्स और भाटघर या पानशेत में बने फाइव्ह स्टार हॉटेल्स में क्या फर्क होगा? बाहर की दुनियाँ को बाहर ही रखने वाले एअरकंडिशन्ड रूम्स, उनके अंदर वही टीव्ही, वही प्रोगाम्स, वही कार्पेट्स और फर्निशिंग, वही शराबें, और अब कहीं कहीं कॅसिनो भी। फिर एक जगह का फाइव्ह स्टार हॉटेल छोडकर लोग दूसरे उसी तरह के हॉटेल की तरफ क्यों भागते हैं?
टूरिझ्म नीति ऐसी हो जो उस भू-प्रदेश की विशेषता ध्यान में रखकर उसी के ईद-गिर्द बुनी गई हो। जिसमें स्थानीय लोगों से संवाद की व्यवस्था हो, खेलकूद और कला प्रदर्शन की व्यवस्था हो, वहाँ के नदी नाले, पहाड, झरने,
पेड, जंगल, प्राणी, इतिहास आदि से केवल पहचान ही नहीं बल्कि भावनात्मक एका बढाने वाला टूरिझ्म हो तो कैसा हो? उन चारों तहसिलों में डूरिझ्म, दूध और हॉर्टिकल्चर की मार्फत रोजगार और समृद्धि लाई जा सकती है। धान भी है।

आज भी मेरे मन में बसे हुए हैं वे सूर्यास्त जो इन तहसिलों के उंचे उंचे पहाडों से देखे। और वे घाटियाँ जिनपर जीप चलाते हुए उनके एक-एक घुमाव और मोड मेरे मानस पाटल पर बसे हुए हैं। इन्हीं रास्तों पर रात में सफर करते हुए देखी है चंद्रमा की बढती घटती कलाएँ और अन्य सितारे। धान और घास की वह सुगंध आज भी ताजा है।
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नया ज्ञानोदय ...... में प्रकाशित


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