मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --14
कामशेत के पास ही वेहेरगांव है जिसकी उंची पहाडी पर एकवीरा देवी का मंदिर है। यह काफी जागृत माना जाता है। प्रशिक्षणकाल में व्हिलेज इन्सपेक्शन सीखने वेहेरगांव गई तो मंदिर भी गई। पुजारी ने वहाँ का इतिहास इत्यादि बताया। मंदिर चार पांच सौ वर्ष पुराना था और किसी जमाने में वहाँ भैंसा बली देने की प्रथा थी। ब्रिटिश राज में बली चढाने का मान(?) प्रांत साहेब का होता था। किसी ने मुझे भावी प्रांतसाहब जानकर पूछा- आप औरत जात। यदि उस जमाने में प्रांतसाहेब होती तो क्या तलवार के एक झटके से भैंसे का सर काट पातीं? मैंने मन ही मन मैंने सोचा कि चलो आज यह प्रथा नही है तो मैं एक मुश्किल से बच गई। लेकिन यदि आज यह प्रथा होती तो जरूर अपने सबडिविजनल मॅजिस्ट्रेट के अधिकार का उपयोग करते हुए यह प्रथा ही बंद करवा देती। कभी किसी उद्घाटन आदि के दौरान जब मुझसे नारियल फोडने कहा जाता है (महाराष्ट्र में यह प्रचलन अत्यधिक है) तो मुझे एकवीरा मंदिर याद आता है तो लगता है कि शायद इनमें से किसी के मन में प्रश्न होगा- क्या ये एक झटके में नारियल फोड लेंगी? कई बार मेरे इन्टरव्यू इत्यादि के दौरान मुझसे पूछा जाता है- एक औरत को ऐसे पद पर अपना बॉस कबूल करते हुए लोगों ने क्या प्रतिक्रिया दर्शाई। मैं बहुत याद करने की कोशिश करती हूँ- क्या कभी मैंने किसी के मन में आनाकानी पाई है? उत्तर मिलता है- नही। सारे पटवारी, तहसिलदार, ग्रामीण जनता यहाँ तक कि कलीग और सिनियर्स के मन में भी दुविधा के क्षण मैंने नही देखे- बस वह एकवीरा देवी के सामने पूछा गया प्रश्न ही बच जाता है। और मैं सोचती हूँ कि जो पूरा का पूरा गाँव एकवीरा देवी की व्याघ्रवाहिनी प्रमिमा को रोज देखता है, पूजता है, उसे अपने गांव का रखवालदार मानता है, उसके संरक्षण में अपने आपको सुरक्षित महसूस करता है, उस गांव में यह प्रश्न क्यों उठा? इसका एक ही उत्तर मुझे जान पड़ता है। जिस किसी ने मेरा काम देखा, और मेरी कार्यक्षमता का कायल हो गया होगा उसके मन में यह प्रश्नचिन्ह नही उठा होगा। आज इतने वर्षों बाद इस प्रश्न पर मुझे एक कौतुक भी करना पड़ता है। किसी ने यह नही कहा कि आप औरत जात हैं, इसलिये प्रांतसाहब भी हों, तो भी आपको यह मान हम नही देते।
ऐसी ही घटना एक बार औरंगाबाद में घटी। वहाँ वकफ बोर्ड किसी कारण बरखास्त था और कलेक्टर को चेअरमैन नियुक्त किया गया था। कलेक्टर मुझे भी ले गए। वहाँ मस्जिद के अंदर मेरे जाने पर किसी ने ऐतराज नही किया- केवल इतना कहा- हाँ अब औरतें भी कलेक्टरी करने लगीं हैं- क्या पता ये ही हमारे यहाँ कलेक्टर लग जाय। ऐसे ही कई वर्षों बाद जब मैं नाशिक में कमिशनर बनी तब की बात है। बगल के त्र्यंबकेश्र्वर गांव में सत निवृत्त्िानाथ की समाधि है जिस पर हर वर्ष अभिषेक समारोह होता है। उसके लिये मुझे बुलाया गया और मेरे हाथों विधान संपन्न हुआ। इन्हीं के छोटे भाई संत ज्ञानेश्र्वर की समाधी पुणे के पास आलंदी में है। इन दोनों की दुलारी छोटी बहन संत मुक्ताबाई स्वयं एक विदुषी और साधक थी। यहाँ तक कि एक बार मुक्ताबाई को ही ज्ञानेश्वर को उपदेश करना पडा- वे करीब पचहत्तर दोहे ताटीचे अभंग नाम से मराठी में विख्यात हैं। ऐसे ज्ञानेश्वर की समाधी पर स्त्रियों का जाना वर्जित था। लेकिन पांच वर्ष पूर्व मराठी वार्षिक साहित्य संमेलन की अध्यक्ष चुनी गई प्रसिद्ध मराठी कवयित्री श्रीमती शांता शेलके और संयोगवश साहित्य संमेलन के आमंत्रक बने आलंदी निवासी। और बस, वहाँ एकत्रित महिलाएँ ज्ञानेश्वर समाधी पर गई- साहित्य चर्चा, भजन कीर्तन इत्यादि हुए। आलंदी देवस्थान के पुजारियों ने जरा भी विरोध नही किया। तब से वह प्रथा समाप्त हो गई। इसके विपरीत सुदूर दखिण के सबरीमलै तीर्थस्थान के अय्यप्पा मंदिर में भी स्त्री प्रवेश वर्जित है। वहाँ हाल में ही एक महिला अधिकारी जिला कलेक्टर बनकर आई। उसने अय्यप्पा प्रवेश निषेध को ठुकराया तो इस पर काफी शोरशराबा हुआ और उसकी ट्रान्स्फर हो गई।
इन घटनाओं का ऍनॅलिसिस मैं करती हूँ तो एक पॉवर प्ले का मुद्दा दिमाग में आता है। एक सामान्य आदमी का दृष्टिकोण भी आज विस्तृत हो चला है । वह समझता है कि स्त्री निषेध वाली ये कई प्रथाएँ अब अप्रासंगिक हैं। लेकिन जो पुजारी वर्ग है वह सोचता है कि नकारने का मेरा हक है उसका क्या होगा? मै जितना जिसको नकार सकूँ, रोक सकूँ, उतना ही मेरा बडप्पन है। सो आज औरतों को रोको, कल दलितों को रोको, परसों और किसी को रोको इत्यादि। यह पॉवर प्ले ठीक उसी तरह है जैसे हर सरकारी दफ्तर में होता है। सरकारी अफसर या कर्मचारी अपना बडप्पन कैसे मापते हैं? प्रत्येक दिन के अंत में मन ही मन और प्रगट चर्चा में भी हिसाब लगाया जाता है कि आज मैंने कैसे, कितनों को रोक दिया। कितनी फाइलें ऑब्जेक्शन लगाकर लौटा दीं। किस बडे आदमी की दाल को भी नही गलने दिया। यदि यह फाईल ठीक से नही देखी होती, उसे रोका न होता तो कितना गजब हो जाता। इत्यादि।
क्या खुद मेरे दफ्तर में ऐसा नही होता? होता होगा। फिर मैं प्रयत्नपूर्वक उन मुद्दों को ढूँढकर उनकी सिस्टम को कुछ सुधारने का प्रयास करती हूँ ताकि कम से कम लोगों को या फाइलों को रोकना पड़े।
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मेरी ट्रेनिंग के दौरान कलेक्टर थे श्री सुब्रहमण्यम्। एक बार मैं उनके दफ्तर में बैठी थी। वे डाक देख रहे थे। एक अर्जी निकालकर मुझे पढने के लिए दी। फिर पूछा- इस अर्जी की सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है जो याद रखनी चाहिए? मैंने कहा- इस प्रार्थी की कोई जमीन सरकार ने अधिग्रहण की है ओर उचित मुआवजा नही दिया है, यही मैं याद रखूँगी। वे हंसकर बोले- नो, नो। यह याद रखा करो कि इस आदमी का नाम क्या था, संभव हुआ तो गांव भी। देखो, हमारे लोग इस अर्जी को चार महीने वैसे ही रख लेंगे। कुछ नही करेंगे। यह आदमी मुझसे मिलने आयगा। जब मैं कहूँगा, हाँ हाँ तुम्हारा नाम, गांव यह है, मैंने तुम्हारी अर्जी देखी है, तो उसे तसल्ली होगी कि चलो काम नही भी हुआ तो क्या? मेरा नाम तो साहब ने याद रखा हुआ है। मैं अचकचा गई। मेरे लिये यह महा कठिन बात है कि मैं किसी का चेहरा या नाम याद रख सकूँ। उनकी बात की प्रचीती भी मैने देखी। दौरे पर कई लोग उनसे मिलने आते तब मैं देखती थी कि उन्हे याद रहता था कि कौन पहले भी उनसे मिल चुका है और उनके बताने पर तत्काल उस व्यक्ति का चेहरा खिल जाता है। यह कला मुझे आजतक नही आई। लेकिन एक संतोष यह है कि मुझे काम के डिटेल्स याद रह जाते हैं। अतः जबतक कोई आदमी कहे मेरा नाम अमुक, गांव अमुक, तब तक मेरा चेहरा एक प्रश्न चिह्न लिये होगा । लेकीन जब वह कहेगा मेरे पड़ोसी से जमीन की बाउंड्री के झगड़े की बाबत फाइल चल रही है, तो मुझे याद आयेगा हाँ और इसने बांध पर लगे दो खैर के पेड़ो की भी तकरार लिखी थी। तब जाकर उसे तसल्ली होती है कि अच्छा, इन्हे काम याद है।
मेरी इस याददाश्त का फायदा मैं ऐसे उठाती हूँ कि मैं क्लर्क से कह सकती हूँ- देखो बाउंड्री पर लगे पेड़ो के झगडे की बाबत सात अर्जियाँ आ चुकी हैं, जरा सबको एक साथ ले आओ और देखो कि क्या एक ही फार्मूला लग सकता है, यदि हाँ तो वही जनरल सकूर्यलर बनाकर सब पटवारियों को भेज देंगे। फिर हमारे पास अर्जियाँ कम हो जाएंगी।
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शनिवार, 24 मई 2008
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