सोमवार, 2 नवंबर 2015

दूर-संचार की दिशा में प्रभावी पहल

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दूर-संचार की दिशा में प्रभावी पहल

DESHBANDHU  24, JUN, 2014, TUESDAY


लीना मेहेंदले

विकास के लिए यातायात की सुविधा का महत्व समझते हुए एक अच्छा प्रयास अटल बिहारी वाजपेयीजी के कार्यकाल में हुआ था।
उन्होंने देश के चार कोनों को जोडऩे वाली चार बड़ी सड़कें और आमने-सामने वाले कोनों को मिलाने वाली दो और बड़ी सड़कें, इस प्रकार ''स्वर्णिम चतुष्कोणÓÓ की कल्पना की थी और उस दशा में सार्थक प्रयास भी आरंभ किए थे। आज उसका अच्छा लाभ देश को मिल रहा है। इसकी चर्चा मैंने 2006 में अपने मराठी लेख ''तीन उत्साही पावलेÓÓ में की थी।
इस प्रकार हाई-वे बनते हैं, तब अगल-बगल के गांव, शहर उनसे जुडऩे आरंभ हो जाता है। संचार का माध्यम तैयार होने से यातायात बढ़ जाती है। अधिकतर यही होता है कि गांव के लोग शीघ्रता से निकलकर बड़े शहरों तक पहुंच जाते हैं जहां रोजगार भी है और आकर्षण भी, सुविधाएं भी हैं और संभावनाएं भी। जब सड़कें नहीं थीं या कम थीं तब भी लोग गांव छोड़कर शहर जाते ही थे।
लेकिन सड़कें बनने से जब शहर जाना सुगम हो गया तब सोच में एक परिवर्तन आया कि अब शहर से गांव को वापस जाना भी सुगम है। इस प्रकार संचार को एक तरफा न रखकर दो तरफा बनाने के ध्येय में पहला कदम तो पूरा हो गया- सोच को बदलने का! लेकिन यदि वास्तव में शहर से गांव की ओर लौटना हो तो गांवों में संभावनाएं बढऩी भी आवश्यक हैं। इस कमी को केवल सड़कें पूरी नहीं कर सकतीं। हमें आवश्यकता है कुछ अदृश्य टाइप के हाई-वे की। मेरा इशारा ऑप्टिकल फायबर केबल की ओर है।
देश में टेलीकॉम के आरंभिक दिनों में जब केवल सरकारी टेलीकॉम विभाग था तब बहुतायत से सारा टेलीकॉम नेटवर्क सरकार के ही अंतर्गत था और उस नेटवर्क के लिए तांबे के तारों के जाल बिछाए जाते थे। 1990 तक इसमें कोई अन्य संभावनाएं बन नहीं पाई थीं।
नब्बे के दशक के प्रारंभ से ही देश में संगणकों का बोलबाला आरंभ हो गया। इसका कारण यह था मायक्रोसॉफ्ट के द्वारा विण्डोज का पैकेज बाजार में उतारा जाना। इस पैकेज के कारण संगणक पर रोजमर्रा के काम करने के लिए प्रोग्रामिंग सीखने की आवश्यकता समाप्त हो गई। इसके पहले संगणकों में प्रोग्रामिंग और सुविधाएं एक-दूसरे से अभिन्न थे। जिसे प्रोग्रामिंग आती थी, संगणक की सुविधाएं केवल उसी को मिल सकती थीं। किसी भी नई सुविधा के लिए या पुरानी में कुछ नया जोडऩे के लिए प्रोग्रामर्स की आवश्यकता होती थी जो उच्च शिक्षित थे वे ऊंची कीमत भी लेते थे। लेकिन विण्डोज के आने से कई तरह की सुविधाएं सामान्य व्यक्ति की पहुंच में आ गईं। बड़े-बड़े कार्यालयों में भी अधिकांश लोगों को संगणक का उपयोग करना आ गया। अब प्रोग्रामर्स की आवश्यकता केवल उनके लिए बाकी रही जिन्हें ग्राहकों को नई-नई सुविधाएं खोज कर देनी थी। वह काम भी कम नहीं था और संगणक के सारे उच्च शिक्षित प्रोग्रामर्स को भरपूर काम मिलता रहे इतनी नई-नई कम्पनियां खुलती रहीं आज भी खुल रही हैं। लेकिन एक सामान्य व्यक्ति संगणक से सामान्य तरह की सुविधा लेकर काम चलाना चाहता है। ऐसे अधिकांश ग्राहकों के लिए प्रोग्रामिंग नामक माथापच्ची टल गई। खासकर जब 1995 में वल्र्ड वाईड वेब की परिकल्पना आई तो संगणक के सामान्य ग्राहक के लिए इतनी अधिक सुविधाएं सरल हुईं कि संगणक भी एक घरेलु आवश्यकता बन गया और इंटरनेट एक घरेलु शब्द बन गया। इस इंटरनेट के लिए घरेलु टेलिफोन कनेक्शन का माध्यम आवश्यक था। इंटरनेट के आरंभिक काल में ही लगने लगा कि बढ़ती मांग के लिए टेलिफोन के तांबे के तारों से अलग कोई माध्यम सोचना पड़ेगा जो संदेशों को अधिक तेजी से और अधिक बड़े पैमाने पर ढोकर ले जा सके। वह अलग माध्यम था- ऑप्टिकल फायबर केबल। 
तो जिस प्रकार एक लम्बी चौड़ी अच्छी सड़क ट्रकों को और उसमें रखे सामान को अधिक तेजी से और अधिक सरलतापूर्वक ढोकर ले जा सकती है और दूर-दूर तक पहुंचा सकती है, उसी प्रकार तांबे के तार की तुलना में ओएफसी बिछाने पर संगणक (या मोबाइल) द्वारा भेजे गये संदेश अधिक सुगमता से और बड़े अनुपात में पहुंचाये जाते हैं। इस बात को पहचान कर स्वीडन देश में एक नीति बनी। वहां की सरकार ने बड़े खर्च पर मुख्य ओएफसी का जाल पूरे देश में बिछाया। वहां से थोड़े मीडियम साइ•ा केबल्स द्वारा प्रत्येक गांव तक ओएफसी पहुंचाकर उस छोर को गांव की पंचायत को सांैप दिया ताकि वह गांव के लिए आय का स्रोत बना रहे। फिर गांव की छोटी-छोटी संगणक आधारित सुविधा देने के लिए जो भी आगे आए उसे इंटरनेट कनेक्टिविटी दी जायेगी। वह गांववालों के लिए विभिन्न प्रकार की इंटरनेट जानकारी सांख्यिकी आदि सेवाएं उपलब्ध करा सकता है। कनेक्टिविटी के लिए मिलने वाली आय गांव-पंचायत की मिलेगी।
इस प्रकार एक ओर गांव पंचायत को आय का स्रोत मिला, दूसरी ओर गांव में इंटरनेट आधारित सुविधाएं उत्पन्न होने से गांव को, शहरों का मुंह नहीं देखना पड़ता। तीसरे, गांव में कम्प्यूटर आधारित छोटे-मोटे व्यवसाय शुरू हो गए जिससे ग्रामीण युवकों का शहरों की ओर पलायन रुक गया।
इस उदाहरण से यह देखा जा सकता है कि ओएफसी का इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रामीण इलाके तक ले जाने से समृद्धि के लिए कितना कारगार है। आज देश में रेल और तेल कंपनियों के द्वारा बड़े पैमाने पर सुदूर इलाकों तक ओएफसी के जाल बिछाए जा चुके हैं क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है। लेकिन विभिन्न विभागों में समन्वय के अभाव के कारण इस अत्यधिकता से उपलब्ध क्षमता को उपयोग में नहीं लाया जाना। जहां से उनकी बड़ी-बड़ी ओएफसी लाइनें जाती हैं, वहीं अगल-बगल में गांव होंगे जहां शायद टेलीफोन लाइनें भी न पहुंची हों। सवाल है केवल ओएफसी की ब्रंाच लाइनें बनाने का जिसका खर्च नई लाइन डालने की तुलना में नगण्य है।

आज देश के लिए सोचने की, देश के विकास के लिए समन्वयपूर्वक स्कीमें बनाने की आवश्यकता है। अत: सरकार को चाहिए कि इस दिशा में कारगर और सही प्रयास करे।




सुरीनामियोंकी चिन्ता

सुरीनामियोंकी चिन्ता

published in janasatta

सातवें विश्र्व हिंदी सम्मेफह्मन के उपफह्मक्ष्य में एकत्रित हुए िVह्मन सुरीनामियों से बातSह्म्रत करने का मौका मिफह्मा उनका उत्साह, प्रेम देखने फह्मायक था। उनमें उमंग थी कि उनके बाप-भाई, Vह्मा-Vह्मी, पुरखों देश से इतने सारे हिंदी-प्रेमी और विद्घVVह्मन उनके देश आए हैं और उनकी भाषा को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं। बहुत कुUळ हो सकता है इस सम्मिफिह्मत प्रयास से।

फह्मेकिन उनके दिफह्म में कई प्रश्निSह्मह्न भी हैं - कई िSह्मन्ताएँ भी हैं। उनकी पहफह्मी Sह्मता यह थी कि पिUळफह्मे एक सौ तीस वर्षो तक Vह्मो भाषा बSह्मी रही, क्या अगफह्मे तीस वर्षों में वह बSह्मी रहेगी ? पिUळफह्मी पीढ़ी तक माँ-दह्मह्म{ह्म बSSह्मों से सरनामी में ही बात करते थे क्योंकि उन्हें डSह्म उतनी अSUळी तरह से नहीं आती थी। फह्मेकिंन आVह्म की पीढ़ी के माँ बाप अपने बSSह्मों से डSह्म में बोफह्मते हैं क्योकि Yह्मान, विकास और रोVह्मगार की भाषा वही है। तो फिर तीस या पSह्मास वर्षों में Vह्मब अगफह्मी पीढ़ी आएगी तब सरनामी कहाँ होगी ?

दूसरी Sह्मता यह भी थी कि सरनामंी को यद्यपि हिंदी की एक बोफह्मी कहा Vह्मा सकता है, है तो वह हिंदी से अफह्मग ही। उनके बSSह्मे या वे स्वयं िVह्मसे अिvह्मक आसानी से समZह्म सकते हैं वह है सरनामी। तो क्या हिंदी |ह्ममी उनकी भावनाओं को समZह्मुगे ? सरनामी से उनका Vह्मह्मे भावनात्मक फह्मगाव है उसे सद्घह्मZह्मेंगे ? उसे अपने सरनामी स्वरुप में ही आगे बढ़ने देंगे या कि उसे बदफह्मकर - भफह्मे ही विकसित कर - हिंnड्ढ्र के रुप में ढ़ाफह्म देंगे? यदि आVह्म की सरनामी कफह्म हिंदी में ढ़फह्म गई तो सरनामंी का क्या होगा ? क्या सरनामी में ग्रंथ रSह्मना के फिह्मए इस हिंदी सम्मेफह्मन में कोई ठोस कार्यक्रम हाथ में फिह्मया Vह्माएगा?

तीसरी Sह्मता यह कि आVह्म सरनामी बोफह्मने वाफह्मे सभी फह्मह्मेग देवनागरी को नहीं पढ़ सकते हाँ, Sह्म पढ़ सकते हैं। तो क्या कोई समयबद्घ योVह्मना बन सकती ट्ठू कि एक +ह्म उनके प्रेरक ग्रंथों का - Vह्मूसे तुफह्मसी रामायण - Sह्म में अनुवाद हो और दूसरी ओर उन्हें अत्यंत सरफह्मता से देवनागरी फिह्मपी - सिखाने के फिह्मए कोई संगणक - vह्मारित कार्यक्रम हो।

उनकी सबसे बड़ी Sह्मता यह भी है कि आVह्म ही उन्हें अपने बSSह्मों को डSह्म की तरफ से अंग्रेVह्मी की ओर मोड़ने की आवश्यकता आन पड़ी है। तो फिर देवनागरी या हिंदी के सीखने में ऐसी कौनसी प्रेरणा है Vह्मह्मे इस तीसरे बोZह्म के फिह्मए उनके बSSह्मह्में को राVह्मी करे?

उनकी और भी समस्याएँ सुनीं - भाषा को फह्मेकर +{ह्मxह्म दह्मSSह्मह्मु Eॅ द्रह्मह्यम्ह्मरुद्यह्म Eॅह्म फह्मE- पांSह्मवीं, Uळठी, सातवीं ----- । उसके विषय में फिर कभी!



मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

2. पेपर लीक का जबाब है

परीक्षा प्रणाली में सुधार

कैट जैसी नामी गिरामी परीक्षा के भी प्रश्नपत्र फूटे, और वह भी पहले कई करोड़ो का बाजार कर चुकने के बाद ही फूटे इस बात से सारे हतप्रभ हो गए। करीब डेढ लाख विद्यार्थियों की मेहनत पर पानी फिर गया। उनके लिए परीक्षा की व्यवस्था करने वाले केंद्रों की मेहनत पर भी पानी फिर गया।
मुझे तत्काल कई पुराने वाकये याद आ गए। करीब तीन वर्ष पहले केंद्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षाएँ भी प्रश्नपत्र फूटने के कारण रद्द कर दी गई थीं। उससे पहले एक बार आई.आई.टी. के प्रश्नपत्र लीक होने से परीक्षाएँ रद्द हुईं। हमारे साहबजादे रेस-काम्पीटीशन इत्यादि में विश्र्वास नही करते और बड़ी मुश्किल से हमारे अभिभावक होने के रौब को मानकर एक बार ये पेपर्स दे चुके थे। जब दुबारा पेपर्स देने की बात सुनी तो साफ साफ बगावत का झंडा गाड़ दिया था। उसी वर्ष मेरी भांजी दसवीं की परीक्षा दे रही थी और गणित की तैयारी के लिए बड़ी मान मनौव्वल करके मुझे अपने शहर ले गई थी। दोपहर उसका पर्चा समाप्त हुआ, हमने खुशी खुशी देखा कि उसने अच्छा खासा हल कर लिया था। और शाम को टीव्ही ने ऐलान कर दिया कि मुंबई में गणित के प्रश्नपत्र फूट जाने से परीक्षा रद्द हो गई। कुहराम मच गया। बेचारी लड़की अगले पेपर का ख्याल छोड़कर रोने में जुट गई। खैर, अगले पाँच छः दिन अभिभावकों ने अपने को जब्त रखकर अगली परीक्षाएँ समाप्त कर लीं। फिर मुंबई में हजारों अभिभावकों की भीड़ सड़क पर उतर आई- आखिर कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और कहा कि चूँकि लाखों विद्यार्थियों में से कुछेक हजार ही इंजीनियरिंग की ओर जाते हैं- लिहाजा हरेक को यह सजा क्यो- परीक्षा दुबारा नही होंगी। एक ओर लाखों ने चैन की सांस ली तो दूसरी ओर यह बात काफी दिनों तक चुभती रही कि वे विद्यार्थी जो पेपर्स खरीद पाए, आखिरकार असत्यमेव जयते का नारा लगाने में सफल रहे।
ऐसे ही कई एक वाकये सभी के मन में होंगे। उनसे हम कितने दिन उदासीन रह सकते हैं?
आवश्यकता है हमारी परीक्षा प्रणाली में बदलाव की। मेरी मान्यता है कि यह काम मुश्किल नही है। संगणकों ने इसे सरल करने की संभावना दिखाई है- बशर्तें कि हम मौके का फायदा उठाएं।
परीक्षा और प्रश्न पत्र क्या हैं? कई लाख विद्यार्थियों की गुणवत्ता और क्षमता को जाँचकर उनमें से जो सबसे अच्छे हैं उनके चयन का, साथ ही सभी विद्यार्थियों की ग्रेडिंग का एक तरीका। इसके लिए हर वर्ष, हर परीक्षा के लिए एक पेपर सेट करना पड़ता है। अर्थात् उस पेपर सेटर के विषय में पूरी गोपनीयता रखने का सरदर्द। फिर उस पेपर की लाखों प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, अर्थात फिर एक बार प्रिंटींग प्रेस इत्यादि स्थलों पर गोपनीयता बनाए रखने का सिरदर्द। फिर उन पेपर्स को गोपनीय रखते हुए प्रत्येक परीक्षा केंद्र तक पहुँचाने का सिरदर्द। लाखों-करोड़ों छात्रों की परीक्षा का एक ही साथ आयोजन करने का सिरदर्द। सारे अभिभावक, छात्र, स्कूली व्यवस्थापन, शिक्षक सभी की जान उन थोड़े दिनों तक सांसत में। हर वर्ष।
अब यह दूसरा नजारा भी देखिए- मान लीजिए हमने हर विषय में हर कक्षा की स्तर के पाँच सौ,हजार या उससे अधिक प्रश्न तैयार कर उन्हें संगणक में डाल दिया। हरेक प्रश्न के उत्तर का संभावित समय और अंक भी संगणक को बता दिए। संगणक की यह जानकारी सबको मुहैय्या करा दी- हो जिसमें हिम्मत वह रखे याद सारे प्रश्नों को। इनमें से कई प्रश्न ऐसे होंगे जिनके लम्बे उत्तर लिखे जाएंगे। संगणक को बता दिया कि उसे इतने छोटे प्रश्न, इतने मंझोले प्रश्न और इतने बड़े प्रश्न पूछने हैं जिनके संभावित समय का योग तीन घंटे का होगा।
अब परीक्षाएँ वर्ष में एक बार आयोजित करने की जगह हर महीने में आयोजित हों। विद्यार्थी परीक्षा केन्द्र पर पहुँचे तो संगणक अपनी मर्जी से एक बेतरतीब प्रणाली- रॅण्डम सिस्टम का उपयोग करते हुए प्रश्नपत्र निकाल देगा। विद्यार्थी उसी के आधार पर अपना पर्चा लिखेगा।
इन उत्तर पत्रों की जाँच में संगणक को झोंकने की आवश्यकता नही है। जिस परीक्षा में केवल ऑब्जेक्टिव्ह सवाल पूछे जाते हैं- जैसा आज भी जी.आर., कैट या जी... परीक्षाओं में होता है- वहाँ तो
संगणक से स्कैनिंग करवा कर उत्तर पत्र जाँचे जा सकते हैं लेकिन जिन परीक्षाओं में लम्बे उत्तर लिखवाना आवश्यक है, उन्हें उसी पद्धति से जाँचा जा सकता है जैसे आज किया जाता है- अर्थात् एक्जामिनरों की मार्फत। उस व्यवस्था में तत्काल कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता नही है।
इस नई व्यवस्था के कई फायदे होंगे। सबसे बड़ा फायदा है कि सरकार, पुलिस का जाँच महकमा, शिक्षा-व्यवस्थापन, अभिभावक तथा विद्यार्थियों को सिरदर्द से मुक्ति। हर वर्ष नए नए पेपर्स सेट करवाने का झंझट खत्म। संगणक की प्रश्न संचयिका जितनी बड़ी होगी परीक्षा उतनी ही अधिक प्रभावी बनेगी। जब भी कभी नए प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे, उन्हें संचयिका में डाला जा सकता है।
हर विद्यार्थी का प्रश्नपत्र अलग होगा- इसलिए कॉपी की भी कोई संभावना नही रहेगी। हमारे प्रथा-अनुगामी कानों को थोड़ा अजीब लगेगा कि यदि हरेक का प्रश्नपत्र अलग हो तो उनकी सही तुलना कैसे होगी। लेकिन यह शंका बेमानी है क्यों कि प्रश्नों का चुनाव एक ही लेवल के मुताबिक किया जायगा। फिर यह भी संभव है कि किसी विद्यार्थी को एक बार अपना प्रश्नपत्र लौटाकर दूसरा माँगने की सुविधा दी जाए, ऐवज में उसके पांच अंक काटे जाएँ। विद्यार्थी चाहे तो वह परीक्षा छोड़कर अगले महीने फिर प्रयास कर सकता है। आज की तरह उसे एक वर्ष का इन्तजार नही करना पड़ेगा।
मेरी जानकारी है कि इस दिशा में कुछ छोटे मोटे प्रयास हो भी रहे हैं- आवश्यकता है कि सरकार इस प्रणाली को एक निर्धारित समय में प्रस्थापित करे और लागू करे।
मुझे याद आता है कि १९९५ के विधान सभा चुनावों के दौरान मैं नाशिक में कमिशनर थी तो मुझसे पूछा गया था कि क्या आप प्रायोगिक तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मशीनों से मतदान करवा पाएंगे। हमारी हाँ के बावजूद उस वर्ष चुनाव आयोग इलेक्ट्रानिक मशीन नही जुटा पाया। लेकिन आयोग के अफसर इस मुद्दे पर लगे रहे और आखिरकार सन् २००० के आते आते यह मशीन सब तरफ लागू हो गए।
इसी तरह यदि मानव संसाधन मंत्रालय चाहे तो यह नई परीक्षा प्रणाली भी एकाध वर्ष के अंदर ही लागू की जा सकती है।

- लीना मेहेंदले



21. अगस्त क्रांति भवन -- अर्थात् कथा 9 अगस्त की इमारत की

अगस्त क्रांति भवन

स्वतंत्रता दिवस न.जदीक आ गया है उससे पहले ८ अगस्त के क्रांति दिवस की यादगार भी देश में मनाई जाती है। ५६ वर्ष हो चले उस घटना को जब देश ने स्वतंत्रता पाई। तरक्की के कई कपने देखे और कई क्षेत्रों में तरक्की की भी। फिर भी कुल जोड़ यही रहा कि आज हम संसार के कई देशों के मुकाबले में पिछड़े हुए है। जनसंख्या तथा भूगौलिक क्षेत्र के रूप में एक विशाल विस्तृत बहु-आयामी तथा प्रतिभाशाली देश होते हुए भी प्रगति और उत्पादकता के मामले में हमारी गिनती सूची में बहुत नीचे पाई जाती है।
इस प्रश्न का उत्तर कोई बहुत कठिन नहीं कि ऐसा क्यों होता है। हमारे राष्ट्रीय चरित्र की कई खूबियाँ है या सच कहा जाए तो खामियाँ है जो हमारी प्रगति की राह में बाधा बन बनती है। ऐसे ही दो नमूनों की बात करने की इच्छा हुई जब मैंने अगस्त क्रांति भवन को देखा।
स्थल देश की राजधानी दिल्ली का शहर, उसमें भी साउथ दिल्ली और उसमें भी भीकाजी कामा प्लेस जैसा मशहूर काम्पलेक्स। इस काम्पलेक्स में एक ओर गेल, हडको, हयात रिजेंसी होटल, .आई.एल., संरक्षण भवन जैसी बड़ी-बड़ी संस्थाए अपने-अपने पॉश ऑफिसों में बैठी है, कई बिजनेस हाऊसिस मौजूद है। उन्हीं के बीच उनके भवन आर्किटेक्ट से मेल खाती खूबसूरत सी अगस्त क्रांति भवन की बिल्डिंग भी है जो पूरी तरह से खाली पड़ी है। उसमें कुछ नहीं होता यहाँ तक की सफाई भी नहीं। और ८अगस्त के दिवस पर जिसकी याद में यह बिल्डिंग बनी कोई कार्यक्रम नहीं होता। इस प्रकार अच्छे आदर्शों का डंका पीटकर एक बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर देना या एक-आद दिन उत्सब मना लेना ऐसा आसान काम है जो हम कर लेते है लेकिंन खड़ी की गई एक इमारत को समूचित तरीके से उपयोग में लाना हमें नहीं आता। चूंकि मेरा कार्यालय भी भीकाजी कामा प्लेस में ही है तो अकसर मैं इस बिल्डिंग को देखती हूँ और आश्चर्य करती हूँ कि अब तक इस पर अराजक तत्व के लोगो ने कब्जा कैसे नहीं किया।
बाहर हाल ८ अगस्त का दिन हमारे सामने है और इस यादगार दिन की याद को संजोए रखने के लिए बनाई गई खाली पड़ी यह सरकारी बिल्डिंग भी।
राष्ट्रीय संपत्त्िा को गवाँने का एक और काम होता है सरकारी कार्यालयों में छुट्टी के माध्यम से। एक ऐसे देश में जो अपनी सांस्कृति विरासत पर गर्व करता है। भगवत्‌-गीता की तथा उसके कर्मयोग की दुहाई देने में पीछे नहीं रहता। उसी देश के प्रशासन में यह गिनती कोई नहीं करता कि एक साल के कितने दिन हम छुट्टीयाँ मनाते है। ३६५ दिनें में १०४ दिन शनिवार, रविवार की छुट्टीयों के उसके अलावा १६ दिन सरकारी छुट्टीयों के फिर हर सरकारी कर्मचारी सालभर में ८ दिन आकस्मिक छुट्टीयों के लिए २२ दिन अर्जित छुट्टीयों के लिए और २० दिन मैडिकल छुट्टीयों के लिए दिए जाते है। कुल हिसाब हुआ १७० दिनों का। इस पर तुर्रा यह कि किसी भी सरकारी कार्यालय के आधे से अधिक कर्मचारी सीट पर बैठे नहीं होते। या तो वह लेट पहुँचेंगे या जल्दी ही ऑफिस से निकल जाऐंगे। लन्च ब्रेक भी कागज पर आधे घंटे का लेंकिन वास्तव में एक से डेढ़ घंटे तक कुछ भी हो सकता है। इसी माहौल में २० से ३० प्रतिशत ऐसे भी अधिकारी और कर्मचारी हैं जो बहुत कम छुट्टी लेते है और ऑफिस समय से कई अधिक देर तक काम करते हैं। सच पूछा जाए तो इन्हीं की बदौलत ऑफिस चलते भी हैं। लेकिंन पिछले ५६ वर्षों का ग्राफ तुरंत बता देरा है कि इनकी संख्या घट रही है।
लोग अकसर पूछते है कि सरकारी ऑफिसों में काम क्यूँ नहीं होता और यदि होता है तो उसका सुपरिणाम क्यों नहीं दिखता।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे पास दो पन्नों का एक पैमप्लेट आया जो इंदौर की किसी संस्था ने प्रकाशित किया था इसका शीर्षक था 'छुट्टीयाँ कम करो अभियान'। लोगो से अपिल की गई थी इस अभियान में जुटने की और एक फार्म बी साथ में था। वह तो मैंने भी भर कर भेज दिया। पर आगे इस अभियान की बाबत कुछ सुनने में नहीं आया।
इसका एक सीधा-सादा उत्तर तो यह है कि सरकारी ऑफिसो में छुट्टीयों कि बहुलता है और काम न करने वाले को इनाम है कि उनसे कोई सवाल नहीं पूछा जाएगा और जहाँ तक सवाल है काम हो जाने का किन्तु सुपरिणाम न दिखाई पड़ने का तो अगस्त क्रांति भवन जैसी इमारत की व्यर्थता इसका जवाब दे सकती है।
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बुधवार, 22 जुलाई 2015

मुंबई नामा- स्वाईन फ्लू -- देशबन्धु रायपुर में प्रकाशित

मुंबई नामा- स्वाईन फ्लू
1 Jan 2010
     अगस्त का महीना मुंबई वासियों के लिये खासे तनाव का रहा। मैं छुट्टियाँ बिताने बेटे के पास अमरीका गई थी कि मुझे फोन आया- स्वाईन फ्लूसे बचिये। पूछनेपर पता चला कि  अमरीकामें, खासकर मेक्सिको से जुडे प्रांतोंमें स्वाईन फ्लू का संसर्ग रोग फैला हुआ है और अमरीका से भारत आनेवाले लोगों की बदौलत यहाँ भी फैल रहा है। मैंने सलाहकर्ता को धन्यवाद दिया और अपने कुछ खास प्रतिरोधक उपाय कर लिये। 7 अगस्त को लौटी तो एअरपोर्ट पर देखा करीब चालीस डॉक्टरों की फौज ड्यूटी बजा रही थी-  हर आगमित प्रवासी से सर्टिफिकेट लिया जा रहा था कि उसे फ्लू के लक्षण नही हैं। जिन्हें थोडी बहुत तकलीफ थी, उनके लिये तत्काल टेस्टिंग की व्यवस्था थी। उस दिन तक मुंबई - पुणे के इलाके में स्वाईन फ्लू से कोई मौत नही घटी थी। 11 अगस्त को पुणे की एक महिला का दुखद निधन हुआ जो कि पहला हादसा था। तबसे एक एक कर कुछ और भी दुर्घटनाएँ हुईं और अगले पंद्रह दिनों में स्वाईन फ्लू से मरने वालों की संख्या से  १० से उपर पहुँच गई। मुंबई में जो तनाव रहा, वह इसी कारण।
      इस तनाव में मैंने कुछ बातें नोट कीं। सबसे खास बात थी हमारी स्वास्थ्य नीति से संबंधित। मैंने देखा कि फ्लू के लक्षणों को ऐलोपॅथी तरीके से परीक्षण कर स्वाइन फ्लू का निदान निकलने तक तीन दिन लग जाते हैं। तब तक टॅमीफ्लू की गोली न लेने की सलाह डॉक्टर दे रहे थे। वजह बताई जा रही थी कि निरोगी व्यक्ति में अनावश्यक टॅमीफ्लू लेने से कई खतरनाक दुष्परिणाम हैं। उन दिनों टॅमी फ्लू गोलियों का स्टॉक भी नही था। जैसे ही स्टॉक बढा- तुरंत सरकारी घोषणा हो गई कि अब लैबेरेटरी के निष्कर्ष तक रुको मत- जिसे लक्षण दिखे उसे टॅमीफ्लू दे दो।
     उधर मीडीया हाइप भी कुछ इस प्रकार था कि हडकंप मच जाये। क्या यह पूरा खेला टॅमीफ्लू दवाई बेचने का था? क्यों कि इन्हीं पंद्रह दिनों के दौरान हमारी सरकार  ने टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियाँ खरीदकर देशभऱ के अस्पतालों और डॉक्टरों को मुहैय्या करवाईं।
     मन्तव्य है कि जिस बक्स्टर कंपनी ने यह दवाई बनाई है उसकी बाबत स्वयं WHO ने कहा कि इस दवाई के अभी तक वे परीक्षण पूरे नही हुए हैं जो कि WHO के मानदण्ड माने जाते हैं, लेकिन WHO को उम्मीद है कि बक्सटर कंपनी ने अपनी तईं जो परीक्षण किये वे प्रोफेशनल ईमानदारी से किये होंगे अतः WHO के अपने परीक्षण न होने के बावजूद इस दवाई से कोई खतरा नही होगा।
     उधर कंपनीने मेक्सिको के स्वाईनफ्लू के लिये बडे पैमाने पर गोलियोंका उत्पादन किया होगा और मेक्सिको में तो वह बिमारी काबू में भी आ गई। फिर गोलियाँ कहाँ बेचें? तो भारत हमेशा एक अच्छा, शक न करनेवाला बाजार मिल जाता है।
     बहरहाल, कंपनी और WHO की नीतियों को छोडें और अपनी सरकारी नीतियों को देखें।सरकारी नीति यह है कि स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य सचिव को देश की डॉक्टरी क्षमता की पूरी खबर है। उन्हें पता है कि देश में इतने डॉक्टर्स हैं, इतने सरकारी अस्पताल, इतने प्राइबेट अस्पताल, इतनी टेस्टिंग लॅब्ज! यह हुआ हार्डवेअर। सॉफ्टवेअर का भी पता है- मसलन टेस्टिंग में इतने दिन लागते हैं, स्वाईन फ्लू की WHO सर्टिफाइड दवा नही निकली है, टॅमीफ्लू का शॉर्टेज है, फ्लू के लिये कोई ऍलोपॅथी दवा असर नही करती- बस!
     जो उन्हें नही पता और न वे जानना चाहते हैं वह ये कि अपनी इस इंडिया में एक भारत भी है। इंडियन गव्हर्नमेंट का स्वास्थ्य विभाग है, पर भारत सरकार के पास कोई स्वास्थ्य विभाग नही है- केवल आयुष् नामका विभाग है जहाँ से आयुर्वेदिक या होमियोपॅथी या योग, यूनानी इत्यादि द्वारा इलाज बताया जाता है। इन सभी पॅथीयों का पहला नुस्खा है कि रोग होने की नौबत ही न आने दो-  पथ्य- विचार करो और प्रिवेन्टिव तरीके अपनाओ। तुलसी, काली मिर्च, सौंठ आदि का काढा लेने पर फ्लू में प्रिवेन्शन अर्थात् रोग आने से
पहले और रोग आने के बाद भी फायदा होता है। उसी प्रकार होमियोपॅथी में फ्लू के लिये नॅट्रम मूर और नेट्रम सल्फ का मिश्रण (बायोकेमिक दवा) और कई अन्य होमियोपॅथिक दवाइयाँ हैं। प्राणायम करते रहो तो भी फ्लू से बचाव हो जाता है। लेकिन भारतीयों के आयुष् विभाग को इंडियनों के स्वास्थ्य संबंधी कोई भी सलाह देने का या इंडिया गवर्नमेंट की स्वास्थ्य नीति में शामिल होने का हक नही है। इसी लिये महाराष्ट्र में भी हालाँकि एक ही सचिव के पास आयुष् विभाग भी है और मेडिकल कॉलेजेस और उनसे जुडे सभी बडे अस्पतालों का मॅनेजमेंट भी। फिर भी आयुष् विभाग का कोई रोल नही है। सूचना प्रसारण विभाग के इश्तहार केवल इतना बताते हैं- डरें नहीं, इलाज करायें- हेल्प लाइन पर संपर्क करें। लेकिन आयुष् के सिध्दान्तों में समाहित प्रिवेन्शन के तरीके की कोई बात ही नही करता।
     हाँ, सरकार की सोच पहले कुछ दिनों तक यह रही की प्रिवेन्शन के लिये भीड भाड को रोका जाय। पुणे में स्कूल बंद हुए तो हरेक शहर में स्कूल बंद करने की माँग हुई। लेकिन मुंबई में रोजाना लोकलसे लाखों लोग भारी भीड को झेलते हुए सफर करते हैं- दूर दूर से अपने काम के दफ्तर पहुँचते हैं, उन्हें कैसे कहा जाय कि भीड से बचो?
      इसी बीच जन्माष्टमी का त्योहार आया। मुंबई में दहीहण्डी की प्रथा खासियत रखती है। ऊँचाई पर टंगी दही हण्डी फोडने के लिये नौजवानों की टोलियाँ घूमती हैं और एकपर एक चढकर ऊँचाई तक पहुँचने का प्रयास करती हैं। उनकी इनाम राशी में करोंडोंका लेनदेन होता है। दर्शकों की भीड भी हजारों की होती है। उनसे कहा गया- भीड मत करो, दहीहण्डी का उत्सव मत करो। लोगों ने धैर्य दिखाया और दही हण्डी का उत्सव नही के बराबर रहा। जाहिर है कि करोडों का लेनदेन खटाई में गया- अगला गणेशोत्सव सर पर था- उसमें कई हजार करोड का लेनदेन होता है। क्या वह भी खटाई में जायगा? इस प्रश्न पर मानसिकता बदली। अब नेता  लोगोंने स्वाइन फ्लू को धता बताते हुए गणोशोत्सव की तैयारी की। सामान्य जन तो वैसे भी गणेश-भक्ति के रंग में थे। अब मीडीया भी पलटी। “स्वाईन फ्लू का कहर बरपा” वाले हेडलाइन की जगह  “लोगों ने धैर्य का परिचय दिया” की स्ट्रिप न्यूज शुरू हुई।
      सरकारी रवैये में और एक बात देखने को मिली। लोग मास्क पहन रहे थे, टेस्टिंग के लिये अस्पताल में लाइन लगा रहे थे, परेशान हो रहे थे, अस्पतालों में इतने घबराये लोगों को एक साथ झेलने की क्षमता भी नही थी। लेकिन सरकार की ओर से कुछ नही कहा गया। जब प्रधानमंत्रीने स्वयं रिव्यू करने की घोषणा की तब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री टीवी पर आकर बोलने लगे। तब मुंबईमें भी पहले मुख्यमंत्री, फिर आरोग्य सचिव फिर निदेशक, फिर सरकारी अस्पतालोंके डीन और पीएसएम (प्रिवेन्टिव सोशेल मेडिसिन)  के डीन बोले। मुझे लगा कि अच्छे लोकतंत्र में इसका उलटा होना चाहिये और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप की आवश्यकता भी नही पडनी चाहिये।
     इसी दौरान एक परेशान करनेवाला टीवी कार्यक्रम देखा- इकलौता।
दिल्ली की किसी राष्टीय सुरक्षा शोध संस्था के निदेशक बता रहे थे कि किस तरह चीन अपनी सैनिक क्षमता तेजी से बढा रहा है और नुमाना में भारत की तैयारी कितनी कम है। हो न हो कहीं चीन युद्ध की तैयारी न कर रहा हो। ऐसे समय में हमारा पूरा ध्यान क्या स्वाईन फ्लू में ही अटका रहेगा, जिसके प्रिवेन्टिव इलाज के प्रति और आयुर्वेदादि इलाजों के प्रति कोई लोक- जागरण नही है। राजकीय चर्चा चलती रहती है कि मुख्यमंत्री को खुद मास्क लगाकर मिसाल कायम करनी चाहिये या नही।
      खैर, गणेशोत्सव में लाखों की भीड ने बता दिया कि स्वाईन फ्लू कोई महामारी वाला खतरा नही है। हाँ इतना  अवश्य है कि साधारण फ्लू में मरने का खतरा नही है- स्वाईन फ्लू पर वक्त रहते इलाज न करने पर खतरा है। अब टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियाँ भी आयात हो चुकी हैं, निजी अस्पतालों में भी बाँटी गई हैं कि खतरा लगे- तो गटक जाओ। टेस्टिंग की हरेक किट का खर्च होता है करीब दस हजार - वह भी एक टेस्ट का। ऐसे हजारों किट भी आयात हो चुके हैं। हमारी ICMR या हाफकिन जैसी संस्थाएँ अपने शोधकार्य के बलबूते पर ऐसा किट बनाने की क्षमता क्यों नही रखतीं- यह चर्चा अगले दस वर्षों में कभी किसी सेमिनार में हो जायगी। ऐसे मौके पर हम तुलसी- काढा, प्राणायाम, नेट्रम सल्फ आदि की बात या प्रयोग(एक्सपेरीमेंट और ऍप्लीकेशन दोनों अर्थों में) क्यों नही करते, यह सवाल कभी नही उठेगा क्यों कि यह इंडिया व्हर्सेस भारत का झगडा है।

लीना. मेहेंदले
३१.८.०९