शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --6-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --6
ग्रामीण जमीन, खसरा खतौना आदि का हिसाब पटवारी रखता है। लगान वसूली कर तहसील ट्रेझरी में जमा करना उसी का काम है। और भी कई तरह के हिसाब। यह सारे समुचित ढंग से लिखे जायें और उनका इन्स्पेक्शन एवं ऑडिट भी ठीक ढंग से हो, इसके लिये १९१५ में अँडरसन नामक एक प्रसिद्ध आय्‌ सी एस अधिकारी ने रेवेन्यू मॅन्यूअल लिखा जो बॉम्बे प्रेसिडेन्सी में लागू हुआ- अर्थात्‌ महाराष्ट्र, गुजरात, सिंध, कराची और कर्नाटक में। यहाँ की सिस्टिम पूरे भारत में सबसे अच्छी मानी जाती है। आज सौ वर्ष होने को आए लेकिन उस व्हिलेज अकाऊंट-सिस्टिम मे कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता नही पड़ी। महाराष्ट्र केडर के प्रोबेशनर जब मसूरी के एक वर्ष ट्रेनिंग के बाद अपने राज्य में एक वर्ष ट्रेनिंग के लिए जाते हैं तो उन्हें इस मैन्यूअल से सामना करना पड़ता है। इसलिए कि वर्ष के अंत में जो परीक्षा होनी है, उसके बाकी सात पेपर्स के उत्तर तो पुस्तक देखकर लिखने का रिवाज है लेकिन अँडरसन मॅन्यूअल का पेपर बगैर किताबी सहायता से लिखना पड़ता है। कई वर्षों बाद मैं पुणे में सेटलमेंट कमिशनर बनी तो मेरे कार्यालय का एक कमरा दिखाते हुए जानकारों ने बताया कि वहाँ बैठकर ऍण्डरसन ने अपना रेवेन्यू मॅन्यूअल लिखा था।

मॅन्यूअल में बताया गया है कि पटवारी गाँव के हिसाब कैसे लिखे और कलेक्टर, प्रांतसाहेब या तहसिलदार उनका ए ऑडिट- अर्थात विस्तृत ऑडिट और बी ऑडिट अर्थात्‌ समरी ऑडिट कैसे करें। प्रांतसाहब को वर्ष में बीस ए ऑडिट पूरे करने होते थे। जिस प्रकार कोई अच्छा चार्टर्ड अकाऊन्टेन्ट किसी कम्पनी का ऑडिट कर उस कंपनी के स्वास्थ्य और व्यवहार की ईमानदारी को जान लेता है उसी प्रकार अच्छा अफसर ए ऑडिट के माध्यम से गाँव की हाल चाल और पटवारी की नियत को जान लेना है। एक अच्छा ऑडिट करने के लिए छः घंटे और बी ऑडिट के लिए एक घंटा लग जाता है। उतना भी समय न हो तो कम से कम फॉर्म नंबर छः, सात, बारह, नौ, आठ और एक तो देख ही ले। कम से कम छः नंबर पर हस्ताक्षर तो कर ही दे ताकि पटवारी उसपर बॅकडेटेड एन्ट्री न कर सके- आदि कई गुर थे। मेरे प्रोबेशन काल में सुबह एक बार कलेक्टर को अभिवादन कर लेने के बाद मेरा समय अक्सर हवेली प्रांत अधिकारी के ऑफिस में गुजरता था जो उसी कम्पाऊंड में था। यह प्रांत अधिकारी खानोलकर अत्यन्त निष्णात थे और कई गुर मैंने यहीं सीखे। मैं अपना ए ऑडिट भी तीन घंटों में समाप्त कर पाती थी। कहना नहीं होगा कि जब अँडरसन मॅन्यूअल की परीक्षा हुई तो उस पेपर में मुझे डिस्टिंक्शन के मार्क आये। एक वर्ष के बाद उनका तबादला हुआ पिंपरी चिंचवड नगर विकास प्राधिकारी के पद पर और मैं हवेली प्रांत अधिकारी नियुक्त हुई। पुणे शहर के बाहर जितने भी नए उद्योग लग रहे थे वे सब पिंपरी चिंचवड गाँवों में लग रहे थे। इसी से यहाँ नई नगर पालिका बनाने की आवश्यकता आन पड़ी थी। उसी को मूर्त रूप देने के लिए प्राधिकारी की नियुक्ति हुई। वैसे यह हिस्सा मेरे ही कार्यकक्षा में पड़ता था। सो मेरी और खानोलकर की मित्रता कायम रही।

इन्स्पेक्शन के समय वे बताते थे- सोचो कि इस इन्स्पेक्शन से मैं क्या साध्य करना चाहता हूँ और बाद में अपने से पूछो- क्या मैंने वह साध्य किया। दूसरे अधिकारी गाँव के राशन दुकान का इन्स्पेक्शन करेंगे तो उसके रजिस्टर के कुछ पन्ने देख लेंगे, फिर कुछ खरीददारों से माँगकर रसीद देखेंगे और लिख देंगे अपने रिपोर्ट में- दस रसीदें देखीं, दुकानदार का रजिस्टर देखा- बस। लेकिन खानोलकर अपने रिपोर्ट में रसीद नंबर दर्ज करते थे और रजिस्टर के वह पन्ने भी जाँचते जिनमें इन्हीं रसीदों की काऊंटरफॉईल होती थी। साध्य क्या था- कि यदि दुकानदार बेईमानी कर रहा हो तो उसे पकड़ा जा सके। इसी लिए रसीदों का मिलान रजिस्टर के संबंधित पन्ने से होना चाहिए- इस बात का वे खूब ध्यान रखते थे।

फिर भी खानोलकर प्रौढ और कन्वेन्शनल अधिकारी थे जबकि खेड प्रांत में गोपाल नामक मुझसे केवल दो वर्ष सीनीयर आई.ए.एस अधिकारी प्रांतसाहेब थे। उससे कुछ अलग बातें सीखीं।

एक बार कलेक्टर के साथ सभी तहसिलदार और प्रांत अधिकारियों की मीटींग चल रही थी कि मुंबई से संदेशा आया कि खुद मिनिस्टर तथा सेक्रेटरी पुणे जिले के कार्यों का जायजा लेने के लिये अगले दिन मिटींग करेंगे। बस, कलेक्टर ने अपना अजेंडा रोक दिया और सबको सूचनाएँ दी अगले दिन की तैयारी के लिए। मैं, गोपाल, खानोलकर सभी हवेली प्रांत के दफ्तर में आए। गोपाल ने हमारे हेड क्लर्क से कहा- मेरे खेड के ऑफिस में फोन मिलाओ। फिर करीब पंद्रह मिनट तक अपने हेड क्लर्क को सूचना देता रहा कि कल की मीटींग के लिये इस मुद्दे का रिपोर्ट चाहिये, वह चार्ट चाहिए, उस मुद्दे को ऐसे लिखना है इत्यादि, अब आप लोग दिन रात बैठ रिपोर्ट बनाइए और सुबह बस पकडकर पुणे पहुँचिए- मैं यहीं रूक रहा हूँ। जब गोपाल का फोन खतम हुआ तो खानोलकर ने अपने हेड क्लर्क से कहा- यह जो सारा अभी सुना, वही तुम्हें भी करना है- मैं अब अलग से कोई सूचना नही देता। हेड क्लर्क भी पुराना खिलाड़ी था- उसने अपनी नोट बुक हमारे सामने रखी। मैंने आश्चर्य से देखा- जब गोपाल अपने हेड क्लर्क को सूचना दे रहा था, तब ये सज्जन भी उसे लिखते जा रहे थे।
इस घटना से मैंने सीखा कि कहीं भी रहने के बावजूद अपने ऑफिस पर रिमोट कण्ट्रोल कैसे किया जाता है।

एक बार कलेक्टर सुब्रह्मण्यम् खेड प्रांत के दौरे पर जाने लगे तो मुझे भी साथ ले गए- जाने के लिए उनकी कार थी। लेकिन जिन गाँवों मे उन्हें इन्स्पेक्शन करना था, वहाँ कार नही चल सकती थी। जीप का ही सहारा था। उन दिनों सरकारी कार्यालयों में गाडियाँ नही के बराबर होती थी। खेड जैसे दूरस्थ गाँव में केवल एक प्रांत अधिकारी की जीप अर्थात गोपाल की। हमारे दल के साथ जानेवालों मे पटवारी, मंडल अधिकारी, कलेक्टर का सिपाही इत्यादि भी मौजूद।

हम लोग जीप की तरफ बढने लगे तो गोपाल ने कहा- मैं ड्राइव करूँगा, कलेक्टर साहब बीच में और लीना, तुम किनारे पर बैठना। बाकी सब लोग पीछे बैठेंगे। बाद में धीरे से मुझसे कहा- कभी भी सिनियर्स के साथ दौरा करना पडे तो खुद ड्राइविंग करना वरना पीछे बैठना पड सकता है, फिर सिपाही, पटवारियों पर रोब नही रहता। लेकिन सिनियर्स को कैसे विश्वास हो कि तुम अच्छा ड्राइविंग कर लेती हो? इसलिये हमेशा खुद ही ड्राइविंग किया करो ताकि कलेक्टर के कान में यह बात जाती रहे कि तुम्हें ड्राइविंग आती है।

बाद में जब मैं प्रांत साहब बनी तब सुब्रहमण्यम्‌ बदल चुके थे और नए कलेक्टर अफझुलपुरकर आ गए थे। मुझे हंसी आती है कि एक बार मेरे विभाग में अफझुलपुरकर इन्स्पेक्शन करने आए और मैं जीप में ड्राइविंग सीट पर बैठने लगी तो उन्होंने रोक दिया। कहा- मैं ड्राइव करूँगा तुम उधर दूसरी तरफ बैठो। बाद में कहने लगे- मैंने सुना है कि तुम भी अच्छा ड्राइव कर लेती हो लकिन मुझे भी आज कई वर्षों बाद जीप ड्राइविंग का मौका मिला है। इस प्रकार कलेक्टर पर अपनी ड्राइविंग की धाक जमाने का मेरा मौका चूक गया।
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