शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --18-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --18
इलेक्शन के दिन की एक घटना है। मैं पोलिंग बूथों पर घूम घूम कर मतदान कार्य को देख रही थी। देहू गांव के एक पोलिंग बूथ के बहुत करीब कांग्रेस और जनता दल दोनों के स्टॉल्स लगे थे और दो बार झटपें हो चुकी थीं। पटवारी ने दंगे की आशंका बताई।लेकिन वहाँ कुल पुलिस फोर्स थी तीन लाठीधारी कान्स्टेबल। मैं तुरंत वडगांव गई जहाँ तहसील कचहरी और साथ में पुलिस भी थी। इन्स्पेक्टर को पुलिस फोर्स लेकर देहू जाने को कहा तो वह हिचकिचाने लगा- कि फोर्स नही है। उसके थानेदार ने इधर उधर से लाकर किसी तरह पंद्रह कॉन्स्टेबुल एकत्रित किये तो कहने लगा- हमारे पास गाडी नही है। तब मैंने थानेदार और उसके पंद्रह जवानों को अपनी जीप में बिठाया और हम देहू पहुँचे। वहाँ दोनों बूथों में पत्थरबाजी और शराब की बोतलों से हमले शुरू हो चुके थे। ऐन वक्त पर हमारे थानेदार के आदमियों ने उन पर काबू किया और बडा दंगा होने से बच गया। थोडी देर बाद इलाके के एस डी पी ओ पाटील वहाँ पहुँचे और इन्स्पेक्टर को आडे हाथों लिया।

दो तीन दिन बाद कलेक्टर, मैं और एस पी इस घटना की विवेचना कर रहे थे। मेरा आग्रह था कि इन्स्पेक्टर पर कारवाई हो। एस पी ने अपने अफसर को बचाने की रौ में कहते गये- ऐसे मौके पर दंगे की जगह जाओ तो जान का खतरा होता है। आपको क्या गरज पडी थी कि अपनी जीप में डालकर पुलिस इन्स्पेक्टर को वहाँ ले जाती? पुलिस अधिकारी अपने आपको उस जगह से दूर ही रखना चाहता है और दंगा खतम होने के बाद वहाँ पहुँचने में ही बुद्धिमत्ता है। मैं अवाक्‌ देखती रही। कलेक्टर और एस पी बहुत सीनियर थे। मैं कुछ कह नही पाई। बाद में दो तीन ज्यूनियर पुलिस अफसरों ने मुझसे कहा- आपकी कारवाई बिलकुल ठीक थी। इस एक घटना ने हमारे मन में आपके प्रति आदर पैदा किया है। ये दो अलग अलग नमूने थे हमारे पुलिस प्रशासन के।

करीब एक वर्ष पूर्व मैं एक आदर्श नमूना देख चुकी थी जब में प्रोबेशनर थी। तब एस पी दूसरे थे। तब इमर्जेंसी चल रही थी। सभी विरोधी पक्ष एक ही जनता दल के बॅनर तले एकत्रित थे। जनता दल के किसी नेता ने पुणे में एक भाषण दिया था। मुंबई से दबाव बन रहा था कि भाषण में उल्लेखित भाषा के आधार पर उन्हे गिरफ्तार किया जाय और उन पर एन एस ए (नॅशनल सिक्यूरिटी ऍक्ट) लगाया जाय। सामान्यतः पुलिस किसी को कैद करती है तो चौबीस घंटे में उसे न्यायालय में पेश करना पुलिस के लिये अनिवार्य है। लेकिन एन एस ए में यह मियाद छह महीने की थी। इंटरप्रिटेशन का पूरा हक कलेक्टर को था लेकिन एक्ट में यह निर्देश था कि कलेक्टर अपनी विवेकबुद्धि का उसी प्रकार इस्तेमाल करे जैसे कोई सुयोग्य जज करता है। साथ ही कलेक्टर का निर्णय ही अंतिम था। उस निर्णय में सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की कोई दखल संभव नही थी।

उस एक दिन में दसियों बार कलेक्टर पर ऊपर से दबाव आता रहा । तीन बार कलेक्टर और एस पी चर्चा के लिये बैठे। प्रोबेशनर होने के नाते मुझे भी विशेष अनुमति थी वहाँ बैठने की। ब्रिटीश काल से ही कलेक्टर को हर महीने एक सिक्रेट कोड भरा लिफाफा भेजा जाता है। उस महीने में आने वाले गुप्त संदेश इस कोड में लिखित कुंजी की मदद से पढे जा सकते हैं। जरूरत न पडने पर कलेक्टर स्वयं हर महीने उस सील्ड लिफाफे को जला देता है। यह सब मैंने तब सीखा।

तीनों बार कलेक्टर और एस पी की बात लम्बी चली। उस वक्ता के भाषण का हर शब्द बार बार पढे गये। उन दिनों भाषण रिकार्ड करने की कोई सुविधा नही होती थी। किसी पुलिस की ही डयूटी लगती थी कि वह भाषण को जल्दी जल्दी लिखता रहे। भाषण मराठी में था- लिखने वाले की हैंडराइटिंग भी मराठी स्टाइल की थी जबकि कलेक्टर और एस पी दोनों तमिलियन। शायद यह भी एक वजह थी मेरी उपस्थिती की। फिर भी दोनों ने भाषण का हर वाक्य कई कई बार पढा, हर शब्द पर चर्चा की और हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि 'विवेकबुद्धि' से परखने पर वह भाषण एन एस ए लगाने के लिये पर्याप्त नही था। मेरे लिए यह घटना एक अच्छा पाठ था कि कैसे एक विवेकशील अधिकारी अपनी सच्चाई पर अडिग रह सकता है। उन दिनों शेषन्‌ या निर्वाचन आयोग आदि कुछ नही थे। कलेक्टर और एस पी दोनों को कभी भी ट्रान्सफर ऑर्डर आ सकता था। फिर भी दोनों दबाव में नही झुके।
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