मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --15
मैं प्रांतसाहब थी जब महाराष्ट्र में प्रायवेट फॉरेस्ट ऍक्विझिशन ऍक्ट लागू हुआ। सहयाद्रि के कठिन पाषाणों के कारण (ग्रेनाइट) बडे बडे ऐसे पठार हैं जिनपर खेती नहीं हो सकती। वहाँ होगी केवल घास या जंगल। कई ऐसे लोग थे जो बड़े बड़े जंगलों के मालिक थे और वे इस बात का ध्यान रखते कि जंगल अच्छी तरह संरक्षित रहे। कुछ लोग उन्हें अंधाधुंध कटवाते भी है। इसी को रोकने के लिए यह कानून बना। मैंने पाया कि मेरे चार तहसिलों में इसका बडा दुष्प्रभाव पडने वाला था। यहाँ प्रायः सारी जमीन चरवाहे और गंडेरियों की थी जो खेती नही कर सकते थे- केवल गाय या भेड बकरियाँ पालते थे। उनकी जमीन छिनी जाने का डर था। ऐसे समय राब जमीन के लिये दो एकर छूट दी जा सकती थी। महाराष्ट्र के गांवों में एक बार फसल काटने के बाद जमीन में बचे खुचे झाड झंखाड, जडें आदि हटाने के लिए उसमें आग जला देते है और वह जमीन एक साल के लिये छोड देते हैं ताकि उसमें कुछ मिट्टी जमा हो सके और फसल उग सके। सो राब के लिए छोड़ी हुई दो एकड़ जमीर उसे वापस दी जा सकती थी। ऐसी कई सौ समरी इन्क्वायरी करके मैंने राब जमीनों में ऑक्विझिशन रोक दिया। उधर दूसरे डिप्टी कलेक्टर नियुक्त थे अधिक से अधिक जमीन सरकार के कब्जे में लेने के लिए। वे हर हफ्ते मेरे साथ मीटींग करते ताकि जल्दी से जल्दी जमीनों का ऑक्बिझिशन पूरा हो। एक बार रेवेन्यू सेक्रेटरी आए तो मैंने उनसे निवेदन किया- सर, यह ऍक्ट मुझे गलत और बेमानी लगता है। आज इतनी जमीन प्राइवेट फॉरेस्ट की जमीन आप सरकारी कब्जे में ले रहे हैं। लेकिन क्या गॅरंटी है कि आने वाले वर्षों में सरकार इनका नियोजन ठीक तरह से कर पायेगी? वे एकदम चिढ गए। इस ऍक्ट की ड्राफ्टिंग उन्होंने ही की थी। उन्होंने मेरी बात पर कोई ध्यान नही दिया। आज इतने वर्षों के बाद भी मुझे नही लगता कि इस ऍक्ट में बनों का अधिग्रहण कर लेने के बाद वास्तव में वन सम्पत्ति की स्थिति में कोई बडे अच्छे परिणाम हाथ आए हों।
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सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में कई सहकारी चीनी मिलें लगीं। इलाके के नेताओं ने इसमें जमकर नेतागिरी और कमाई की। सहकारी क्षेत्र को बढावा देने के लिये सरकार ने इन कारखानों को भारी वित्तीय सहायता दी। महाराष्ट्र में सहकारिता क्षेत्र का जो अपना रौब और दबदबा है उसमें प्रमुख हैं सहकारी सूत कारखाने, चीनी कारखाने और दूध फेडरेशन्स!
चीनी कारखाने धडधड निकलने लगे। उन किसानों को मेम्बर बनाया जाने लगा जो गन्ना उगाते थे। कारखाना लगाते समय कम से कम कितने मेंबर चाहियें, और गन्ने की खेती का कम से कम कितना क्षेत्र चाहिये, यह तय था। २००० टन से छोटा कारखाना लाभदायी नही हो सकता था। अर्थात् भारी मात्रा में गन्ना चीनी कारखाने तक पहुँचना जरूरी है- चाहे वह गन्ना मेम्बरों का हो या नॉन मेंबरो का।
इससे पहले पूरे महाराष्ट्र में और खासकर पुणे जिले के गांव गांव में गन्ने के मौसम में गुड बनाया जाता था। जनवरी से मार्च तक हर गांव में बडे बडे कडाहों में गन्ने का रस उबालकर किसान गुड बनाते थे। कोल्हापूर जिले का गुड आज भी अच्छा खासा एक्सपोर्ट मार्केट काबिज किये हुए है। गुड के आगे थोडी और प्रोसेसिंग करके चीनी भी बनाते थे जो कारखानों में बनने वाली चीनी जितनी रिफाइंड नहीं होती थी और बडे बडे ढेलों के रूप में बनती थी- इसे महाराष्ट्र में खांडसरी कहा जाता है। लेकिन यह माना जाता है कि गन्ने से गुड बनाना कम फायदे का है, चीनी बनाने में ज्यादा आर्थिक एफिशिअन्सी है। यह सेट्रलाइज्ड पॅटर्न बनाम डिसेंट्रलाइज्ड पॅटनर् का झगडा है। उधर कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते थे कि गुड बनाने की प्रक्रिया में स्वच्छता का कोई ध्यान नहीं रखा जाता, इसलिये गुड के कहाडों पर रोक लगाना आवश्यक है। इन दो के साथ अब वे नेतागण भी आगे आए जो चीनी मिलों में चेअरमन बने थे। इन बसके दबाव में सरकार ने गुड बनाने पर रोक लगा दी। किसान अब गुड नहीं बना सकता था। उस पर बंधन आ गया कि वह अपना गन्ना केवल चीनी कारखाने को ही बेच सकता है। प्रांतसाहब के कामों में एक काम यह भी जुड गया कि यदि कोई किसान गुड बना रहा है तो उसका गन्ना, गुड आदि जप्त किया जाय और उस पर कारवाई तथा दंड भी हो। यह नियम भी मुझे हमेशा अन्यायकारक ही लगा। तुर्रा यह कि नियम कहता था कि यह नियम किसान के हित में है क्यों कि कारखाने को गन्ना बेचने से अधिक दाम मिलता है। इसलिये यह जनहितकारी नियम है। मैं कहती थी कि यदि यह किसान के फायदे का सौदा है तो वह अपने आप इसे करेगा इसके लिये जोर जुर्माना क्यों? किसान को अपनी मर्जी खुद तय करने का हक होना चाहिये। अतः मेरे तहसिलदारों को हिदायत थी कि गुड के कडाहे रोकने भी हों तो भी न कोई दंड लगाया जायगा, न कडाहे उलट कर बनने वाले गुड का नुकसान किया जायगा। केवल गन्ना कारखाने तक भेजने की कारवाई होगी।
ऐसे कई नियम मिनाये जा सकते हैं जिनका पालन छोटे अधिकारियों को करना पडता है। उनका सैद्धान्तिक और नैतिक आधार क्या है यह पूछने का, या यदि अपना कोई अन्य मत है तो उसे व्यक्त करने का कोई फोरम, कोई प्लॅटफॉर्म सरकारी प्रणाली में नही है। नैतिक बातों को तो छोड ही दें, जो नियम या योजना अच्छी है, उसके बाबत भी, उसकी अनुपालन की कठिनाइयाँ जानने के लिये वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारियों के वैचारिक आदान-प्रदान का कोई सिलसिला शासन-प्रणाली में नही है। कहीं कहीं है तो उसे अधिक कारगर बनाने की जरूरत है। यह करने में देश की ब्यूरो सी क्रमशः पीछे पडती गई और मामले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के लिये वहाँ ले जाये जाने लगे । इस तरह प्रशासन का यह अंग दिन पर दिन कमजोर पडता जा रहा है।
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शनिवार, 24 मई 2008
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