मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --5
बिहार में शिक्षा होने के कारण मराठी साहित्य और साहित्यकारों से मेरा परिचय नहीं के बराबर था। एक दिन एक बड़ा सुंदर नॉवेल पढा- 'हम भगीरथ के पुत्र'। भाखडा नांगल डॅम बनने की पार्श्वभूमि पर लिखा यह उपन्यास धरण बनाने वाले इंजिनियरों की कुशलता को समर्पित है। मुझे यह इतना पसंद है कि तब से आज तक इसे हिंदी में अनूदित करने की इच्छा मन में है। किसी ने बताया कि इसके लेखक दांडेकर तलेगांव में रहते हैं। लेकिन उनसे मिलने में संकोच होता रहा। आज पता चलता है कि मैंने क्या खोया, क्योंकि दांडेकर न केवल एक अच्छे साहित्यकार बल्कि सहयाद्रि के पठारों पर बसे सभी किलों के एनसाइक्लोपीडिया थे। ऐसी ही एक और मुलाकात से मैं वंचित रही- वे थे शिक्षण- गुरू जे.पी.नाईक जो मेरे इस कार्यकाल में काफी बीमार थे लेकिन थे पुणे में ही।
मेरी प्रांतसाहबी के चार वर्ष पूर्व अर्थात् १९७२ और १९७३ में महाराष्ट्र में अभूतपूर्व अकाल पड़ा। इससे छुटकारे के लिए दो योजनाएँ सामने आईं। एक थी रोजगार हमीं योजना, इस में सरकार ने रास्ते बनाने, सिंचन तालाब और मृदा-संधारण के काम शुरू किए जिसपर काम करके लोगों को मजदूरी मिल सके। अहमदनगर और सोलापुर जैसे जिलों में पचास हजार से एक लाख तक लोग ऐसे कामों में लगाए गए। मावली तहसिलों में ये काम संभव नहीं थे। लेकिन अच्छी बात थी कि घास और पशुधन की बहुलता के कारण उन्हें इसकी अधिक आवश्यकता नही थी। दूसरी थी अनाज के लेव्ही की योजना जिसके अर्न्तगत किसान के खेत में पके अनाज में से एक बड़ा हिस्सा सरकार खरीदती थी। इसके दर निश्चित थे। अधिकतर लेव्ही ज्वार या बाजरा की होती थी। कभी कभी चावल और गेहूँ भी। कलेक्टर की मीटींग में पहला अजेंडा यही होता था कि किस तहसील का लेव्ही कलेक्शन कितना रहा।
प्रांतसाहब को हर महीने कम से कम २० गांवों में व्हिजिट, इन्स्पेक्शन आदि तथा दस गाँवों में नाइट-हॉल्ट रखना पड़ता था। तब फोन इत्यादि सुविधाएँ अल्यल्प थीं। हमारा एक महीने का कार्यक्रम पहले ही सूचित किया जाता था। फिर पटवारी उस उस गाँव में लेव्ही अनाज के बोरे तैयार रखते थे। प्रांत साहेब के आने पर उन्हें सजीधजी बैलगाड़ी में बिठाकर गांव के चौपाल में बाजे गाजे के साथ ले जाया जाता। वहाँ पर पहले ही बोरियों में लेव्ही का अनाज, तराजू इत्यादि तैयार रहता था। तहसिल से सिव्हिल सप्लाई क्लार्क और गोडाऊन कीपर पहुँचे रहते थे। फिर प्रांतसाहब के हाथों तराजू का विधिवत् पूजन, नारियल फोडना, फिर अनाज की गड्डी तराजू में रखवाना, इत्यादि सम्पन्न होता, उधर सप्लाई क्लार्क खटाखट रसीद फाड़ता चलता था।
लेकिन कभी कभी कलेक्टर का तय किया हुआ टार्गेट पूरा नही होता था। फिर क्या था? पटवारी मीटींग में पटवारी को फायरिंग! अर्थात फायरिंग के लिए पटवारी और शान से सवारी निकालने के लिए प्रांतसाहब- यही काम का बंटवारा होता था। हम- यानी मैं और दूसरे प्रांतसाहव चर्चा करते- कि हम इतनी कड़ाई दिखाते हैं और पटवारियों से काम करवाते हैं, जब कि खुद हम वरिष्ठों की कड़ाई के कारण नही बल्कि अपनी कर्तव्यनिष्ठा के कारण काम करते हैं। यह मुगालता लम्बे काल तक रहा। ऐसे में पटवारी के हाथ में एक ही उपाय बचता था कि किसान को खसरा खतौनी आदि के कागज तबतक न दे जबतक उसके टार्गेट पूरा न हो जाए, चाहे वह लेव्ही के टार्गेट हों या लगान वसूली के। स्मॉल सेव्हिंग योजना के लिए किसान से पोस्ट ऑफिस में पैसे जमा करवाने हों या शिक्षक दिन के लिए फंड इकट्ठे करने हों। फिर किसान हमारे पास शिकायत करते कि पटवारी खसरा खतौनी के कागज नहीं दे रहा। तो हम फिर पटवारी को धमकाते थे। जिस पटवारी को एक बार किसान के कागज रोक कर सरकारी टार्गेट के लिए पैसे जमा करने की आदत पड़ गई वह अपने लिए भी कुछ जमा पूँजी कर ही लेता था। लेकिन यह भी सौ प्रतिशत सही नही है। तहसिलदार, प्रांतसाहेब, कलेक्टर, मंत्री आदि जब भी किसी गांव का दौरा करते हैं, उनके खाने पीने और तामझाम की व्यवस्था पटवारी करते हैं। फिर उसके पास यही उपाय होता है कि गाँव के धनी किसानों से कह कर व्यवस्था करें। यहीं से भ्रष्टाचार की शुरूआत होती थी। इसी से मैंने अपने लिए नियम बना लिया था कि दौरे पर जाना हो तो अपने खाने का बिल, या साथ में जितने भी कनिष्ठ अधिकारी हों, सबका बिल मैं ही देती। कोई वरिष्ठ अधिकारी मेरे इलाके में आते तो यथासंभव सादगी बरती जाती। मजा यह कि जब भी कभी मेरे कलेक्टर या कमिश्नर दौरे पर आए, वे भी अपने सहित तमाम कनिष्ठों का बिल खुद देते थे- मुझे नही देने देते। लेकिन मंत्रियों की बात अलग थी। उनका खर्चा औरों को उठाना पड़ता।
यहाँ तय कर पाना मुश्किल है कि पटवारी की ईमानदारी किस जगह समाप्त होती है और कहाँ से उसका भ्रष्टाचार शुरू होता है। फिर भी जब भी कोई किसान शिकायत करे, तो उसकी शिकायत दूर करना हर हालत में पहला फर्ज बनता था।
लेव्ही के विषय में बारामती के प्रांत अधिकारी जैन ने अपना प्रिय किस्सा सुनाया। वे तब नए नए एम्.पी.एस्.सी की परीक्षा उत्तीर्ण होकर प्रोबेशनर प्रांत अधिकारी लगे थे। तहसिलदार के साथ लेव्ही वसूलने गए। एक गाँव में किसी किसान के घर भोजन की व्यवस्था थी। दस बारह कर्मचारी और गाँव के आठ दस अन्य प्रतिष्ठित। पंगत चल रही थी कि किसी गरजवश गृहपति ने भंडार-घर खोला। तहसिलदार ने देख लिया कि वहाँ कई बोरियाँ भर अनाज रखा हुआ था जबकि किसान ने पूरी लेव्ही यह कहकर नही भरी थी कि अधिक अनाज पैदा ही नही हुआ। फिर क्या था? पंगत आधे खाने पर ही रूक गई। तहसिलदार उठे। बोरियाँ गिनी। लेव्ही के हिसाब से बोरियों पर ठप्पा लगाया- सरकारी गोदाम का। सप्लाई क्लर्क से रसीदें बनवाईं- तब कहीं जाकर पंगत आगे बढी। तहसिलदार ने सबको सुनाते हुए जैन से कहा- प्रांतसाहव, इससे अनाज वसूली करके हम अपना सरकारी टार्गेट पूरा कर रहे हैं- कर्तव्यनिष्ठा दिखा रहे हैं- यह भावना पलभर को भी मन में न लाइए कि इसी के घर अन्न ग्रहण कर इसी का अनाज कैसे सरकार-जमा कराऊँ। अन्न-ग्रहण अपनी जगह है, कर्तव्य पूर्ति अपनी जगह! जैन यह तत्व-दर्शन सुनकर अवाक् रह गये।
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शनिवार, 24 मई 2008
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