शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --7-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --7
मैं प्रांतसाहब बनी, तभी पुणे जिले में भारतीय विदेश सेवा का एक अधिकारी फ्रान्सिस प्रोबेशनर आया। साथ ही टेलिफोन सेवा में एक प्रोबेशनर आया महेंद्र। फ्रान्सिस ट्रेनिंग के लिये मेरे साथ ही अटैच्ड् था। महेंद्र के सिनियर्स पर मैंने अपने प्रांत होने का रोब जमाकर इजाजत ले ली थी कि हमारे दौरे में वह भी साथ आया करेगा। भारतीय विदेश सेवा के सभी अफसरों को एक वर्ष के लिये ग्रामीण इलाकों में ट्रेनिंग दी जाती है ताकि विदेश जाने से पहले उन्हें पता रहे कि अपने देश में छोटे से छोटे लेवल पर प्रशासन का काम कैसे चलता है। महेंद्र को भी आगे चलकर ग्रामीण इलाकों में टेलिफोन नेटवर्क पहुँचाने जैसे काम करने ही थे।

सो हम तीनों दौरे पर जाते- जीप में अगली सीटों पर बैठकर। पीछे हमारे पटवारी, ड्राइवर, क्लर्क इत्यादि होते। रास्ते में हम लोग शोर मचाते, गीत गाते, अंताक्षरी खेलते और झगड़ते भी थे। लेकिन इन्स्पेक्शन की जगह पहुँचकर एकदम गंभीरता धारण कर लेते थे। इसी समय डिफेन्स अकाउंट सर्विस में राधा नामक अफसर भी आ गई थी। मैं और राधा पंजाबी ड्रेस पहने, किराए की साइकिल लेकर पुणे में चक्कर काटते। चूँकि मेरा कार्यक्षेत्र पुणे से बाहर था सो यह डर नहीं होता था कि लोग देखेंगे और मेरा रोब खतम हो जायगा। इससे मैंने एक बात और सीखी- अपने पोस्टिंग के स्थान पर यदि 'प्रसिद्ध' होने के मोह से अपने को बचाकर रखा जाए तो अपनी मर्जी की कई बातें की जा सकती हैं और यह डर नही रहता कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा। अपनी प्राइवसी बची रहती है। वरना भाप्रसे की नौकरी में प्रसिद्ध होने के मौके और मोह दोनों ही बहुतायत से होते हैं।
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यों मेरी दिनचर्या चल रही थी कि तभी लोकसभा चुनाव घोषित हो गए। इसके लिए मतदाता सूची बनाने का जिम्मा कलेक्टर और प्रांतसाहब का होता है। उपर से निर्देश मिला कि अमुक प्रतिशत जाँच पडताल प्रांतसाहब स्वयं करें। मुझे आज भी याद आता है कि कैसे एक दिन लोनावला में भरी बारिश में, मैं फ्रान्सिस और महेंद्र ने लोगों के घर-दुकान में जा जाकर मतदाता सूची की पडताल की थी।

लोनावला एक अच्छा टूरिस्ट स्पॉट है जहाँ मुम्बई से भारी संख्या में लोग आते हैं। यहाँ दसियों दुकानदार 'चिक्की' अर्थात्‌ मूँगफली और गुड की रेवडी बनाते हैं। लेकिन सर्वोत्तम माना जाता था कूपर चिक्की को। इस कपूर चिक्कीवाले का लडका फ्रान्सिस का दोस्त निकला। हमारी जान पहचान हुई। लेकिन इसके बाद जल्दी ही अचानक वह लड़का कार ऍक्सीडेंट में मारा गया। इकलौता लड़का। कपूर चिक्की की दुकान उस दिन से जो गिरने लगी सो महीनों तक नही संभल पाई। मेरी आँखों के सामने चार पाँच वर्षों में ही एक अच्छे कारोबार का ह्रास होते हुए देखा। बाद में कूपर की बेटी खुर्शीद ने उसे फिर संभाल लिया।

इसका उलटा भी देखा है- व्यंकटेश हॅचरी के रूप में। में प्रोबेशनर थी जब एक गाँव में थोड़ी सी जमीन पर चार पांच सौ मुर्गियों से यह हॅचरी शुरू हुई। अगले दो वर्षों तक वे जमीन खरीदते रहे- कारोबार बढाते रहे- इस या उस अनुमति के लिये मेरे ऑफिस आते रहे और देखते देखते अपना कारोबार इतना बढा लिया कि दस वर्षों में ही यह एशिया की एक बड़ी हॅचरी बन गई। मैं दौरे के लिये अक्सर उधर से गुजरती और अपनी आँखों के सामने देखती कि कैसे एक अच्छा कारोबार फल फूल रहा है। अपनी मुर्गियाँ बेचने के लिए दूसरे लोगों को हॅचरी में प्रेरित करना, सरकार से सुयोग्य नियम कानून बनवाना, अंडों का मार्केट ऑर्गनाइज करना, जैसे कई काम इसके प्रणेता राव ने किए। हालाँकि वे अब नही रहे लेकिन अब भी यदि मैं उधर से गुजरूँ तो लगता है यह अपनी ही हॅचरी है, इसकी उन्नति और प्रगति में अपना भी कुछ योगदान है, शुभकामनाएँ हैं।
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