शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --20-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --20
उन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में बँक भी अत्यन्त कम थे। या तो स्टेट बँक या फिर जिला सहकारी बँक। कई तहसिल मुख्यालयों में भी बँक नहीं पहुँचे थे। सरकारी पैसों का सारा व्यवहार सब ट्रेझरी के मार्फत होता था जो तहसिलदार के नियंत्रण में कार्य करती। तहसिलदार हर महीने सबट्रेझरी का इन्स्पेक्शन करता और प्रांत अफसर वर्ष में एक बार। उस दिन सारी रकम गिनी जाती और सारे रजिस्टर्स जाँचे जाते। प्रांतसाहब के मुख्यालय तथा अन्य तहसिल कार्यालयों से पांच सात व्यक्तियों की डयूटी लगाकर एक टीम बनाई जाती जो दो दिनों में इस काम को अंजाम देती थी। इस इन्सपेक्शन के दौरान मैंने पहली बार कौतुहल भरी नजरों से देखा कि किस प्रकार नोटों की गड्डियाँ नजाकत से थामकर उन्हें फटाफट गिनते हैं। उन क्लर्कों के अंगुलियों की कोई भी जुम्बिश व्यर्थ नही होती थी। पहली बार यह नजारा देखकर मैं ठिठक गई थी- कि मैं भी यह तरीका सीखूँ। लेकिन वह ख्याल छोडकर मैं दूसरी बातों में लग गई तो वह बात पीछे छूट गई।
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ट्रेझरी इन्स्पेक्शन के दिन ही तहसिल के प्रत्येक गांव से पुलिस पाटील को बुलाकर उन्हे सम्मान चिह्न स्वरूप पान की गिलौरी प्रांतसाहब के हाथों दी जाती थी। थालियों में चांदी के बर्ख और लाँग से सजी पान की गिलौरियाँ रखी जाती थीं। तहसिलदार एक एक पुलिस पाटील को बुलाकर उनका परिचय करवाते। पुलिस पाटील प्रायः गांव का प्रतिष्ठित व्यक्ति होता था और उसकी नियुक्ति पूर्णतः प्रांत अधिकारी के मत से होती थी। गांव में कोई भी दुर्घटना या गुनाह होने पर उसकी सूचना पुलिस पाटील ही पुलिस में देता था। यह आवश्यक माना जाता कि वह व्यक्ति गांव में प्रतिष्ठित हो, साथ ही उसकी सूचनाएँ विश्वसनीय हों।

लेकिन आज पुलिस पाटील एक नौकरी बनकर रह गया है। सम्मान चिन्ह की गिलौरी देने की प्रथा और उसकी आत्मीयता समाप्त हो गई है। लेकिन एक नया पहलू भी उभर रहा है। चूँकि अब यह एक सरकारी नौकरी बन गई है, अतः इसमें अनुसूचित जातियों एवं महिलाओं के लिए भी आरक्षण का प्रावधान हो गया है। महाराष्ट्र की महिला पुलिस पाटील, महिला ग्राम पंचायत सदस्य या महिला सरपंच लेखन के लिए एक अच्छा विषय है जिस पर आज तक प्रथितयश साहित्यकारों की नजर नही पडी है। उन पर कोई कथा या उपन्यास नही लिखा गया है। प्रांतसाहबी के दौरान पुणे, खंडाला, पुणे-भोर आदि राष्ट्रीय महामार्गों पर यह बहुत खलता था कि कहीं कोई लेडिज टॉयलेट नही होते थे। कई वर्षों बाद इंग्लैंड गई तो देखा कि वहाँ महामार्गों की रचा का प्रोजेक्ट बनता है, उसी समय प्रोजेक्ट के एक अंश के रूप में तय होता है कि कहाँ कितने फर्स्ट एड सेंटर्स, कितने दवाखाने, कितने टॉयलेट्स, कितने स्नॅकबार, कितने टेलीफोन बूथ लगेंगे और जब तक वे न लग जाए, रास्ते के उस सेक्शन का निर्माण अधूरा माना जाता है। हमारे देश में पिछले दस वर्षों से नॅशनल हाइवे अथॉरिटी बनी है लेकिन आज भी उनकी कस्टमर सर्विस पॉलिसी नही बनी और न यह उनकी किसी पॉलिसी में लिखा गया कि ये सारी सुविधाएँ किसी भी रास्ते के प्रोजेक्ट का अभिन्न अंग होंगे।

यदि हमें महिला सक्षमीकरण की बात करनी है, तो महिलाओं में घुमक्कडी को प्रोत्साहन देना होगा, इसके लिये महामार्गों पर लेडिज टॉयलेट बनाना अनिवार्य होना चाहिये।
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