शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --16-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --16
जो बात फॉरेस्ट ऍक्विझिशन या गुड के लिये यही हाल था जमीन अधिग्रहण कानून की बाबत। सरकारी कामों के लिये कोई भी जमीन अधिगृहित करने का कानून ब्रिटिश राज में था जो आज भी चला आ रहा है यह एक सेंट्रल गवर्नमेंट ऍक्ट है जो देशभर में लागू है। मैं जब प्रशिक्षण के लिए आई तब पुणे में चौदह मंझले और बडे सिंचाई प्रकल्पों पर काम चल रहा था जिसके लिए जमीनें अधिगृहित हो रही थीं। एक पुणे जिले में अठारह लॅण्ड ऍक्विझिशन अफसर थे जब कि सामान्यतः हर जिले में एक या दो अधिकारी होते हैं।

महाराष्ट्र एक प्रगतिशील राज्य है जिसने कई अच्छी प्रशासनिक पहलें की हैं। पुनर्वसन का कानून भी सबसे पहले महाराष्ट्र ने ही बनाया (वरना आज भी कई राज्यों में पुनर्वसन का कानून नही है) । सिंचाई प्रकल्पों में जिनकी सारी जमीन अधिगृहित हो गई या जलाशय के अंदर डूब गई उन्हें इस पुनर्वसन कानून के अंतर्गत मुआवजा, दूसरी जमीन, सरकारी नौकरी आदि प्रावधान थे। यह कानून तब नया ही था। जिनका पुनर्वास होना है, ऐसे लोगों की मीटींग कराई जाती। जिले में एक पुनर्वास अधिकारी भी था जो ऐसी मीटींगों के लिये अधिकारी पर निर्भर था। मैंने उनके साथ कई मीटींगों में भाग लिया। तब मैं कहती कि केवल नौकरी देने प्रावधान करने से कुछ नहीं होगा- इनके लिए नौकरी में आरक्षण करवाइये। अगले पांच दस वर्षों में कानून में यह सुधार भी हुआ- और भी कई हुए। लेकिन आज इस पूरे अधिग्रहण बनाम पुनर्वास के कानूनों को मूल सिरे से पढने की और सुधारने की आवश्यकता है। यदि जमीन अधिग्रहण से विकास हो रहा है तो विकास में उनका भी बडा हिस्सा होना चाहिए जिन्हें आपके अधिग्रहण कानून ने बेघर बेगांव कर दिया- जिनके गांव के गांव और जंगल के जंगल पानी में डुबा दिये। उनकी जीवन शैली को समझे बगैर आपने अपने स्टॅण्डर्डों से उनका पुनर्वास तो करना चाहा- पर विकास से जो समृद्धि आंकी उसमें उन्हें उतना कितना हिस्सा दिया?

पुनर्वास कानून की सबसे बडी न्यूनता तो यह है कि जो व्यक्ति समृद्धि के जिस किसी धरातल पर है, पहले तो आप उसे वहाँ से नीचे बहुत नीचे धकेल देते हैं। फिर उसे वहाँ से धीरे धीरे उठाकर वापस उसके पुराने धरातल पर लाने का प्रयास करते हैं- न जाने कितने वर्षों के बाद। कोयना प्रकल्प में पचास के दशक में उजडे लोगों का पुनर्वास आज पचास वर्षों के बाद भी पूरा नही हुआ है- यह है प्रगति का वेग महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील राज्य में। फिर अन्य राज्यों में क्या परिस्थिति होगी?

अधिग्रहण कानून में एक और मुद्दा है। किसी की पांच एकड जमीन में से सडक बनाने के लिए आधी एकड जमीन अधिगृहित करना और दो सौ गांवों और बीस तीस हजार एकड जंगलों में पल बढ रहे पचास हजार से भी अधिक लोगों पर अधिग्रहण और पुनर्वास कानून लगाना दो अलग अलग बातें हैं। लेकिन इसे न समझते हुए सब पर एक ही कानून लगाया जाता है।

अधिग्रहण कानून में सरकारी नौकरी का प्रावधान तो है लेकिन नौकरी मिलेगी केवल क्लास फोर की यानी चपरासी की। क्यों नहीं उनके लिए आई टी आय जैसे ट्रेनिंग खोले जाते? यह और ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग में उठते थे- उनसे मैंने काफी कुछ सीखा। मुझे हर बात की तह तक पहुँच कर जाँच करने की आदत पडती गई। लेकिन प्रशासन तंत्र में सुधार? वह अब भी दूर की बात है।
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