शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --2-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --2

इन सब कामों में कलेक्टर का बाँया और दहिना- दोनों हाथ होते थे सब डिविजनल ऑफिसर अर्थात प्रांत साहेब! पहले दौर में कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक गोरे अफसर हुआ करते थे। लेकिन अधिकांश प्रांत साहेब देशीय लोग होते। धीरे धीरे जब आयसीएस में हिन्दुस्तानी लोग आने लगे तो प्रांतसाहबों को भी कलेक्टर का प्रमोशन दिया जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद आईएएस बनी। उसके अफसरों को भी पहले दो वर्ष प्रांतसाहबी में लगाने का रिवाज कायम रहा। कलेक्टर और प्रांतसाहब की जो प्रतिमा जन मानस में बैठी हुई थी, वह भी अधिकतर कायम ही रही। हालाँकि उनके अधिकार और कामों में काफी अंतर भी पड़ा। फिर भी ग्रामीण प्रशासन में उनकी भूमिका आज भी करीब करीब वही है, और उनका रूतबा भी।

इस पहली पोस्टिंग के कारण नए आईएएस अफसर को ग्रामीण इलाकों में भरपूर काम करना पड़ता है, और वहीं नींव है इस बात को सीखने की कि प्रशासन का असर छोटे से छोटे आदमी तक किस रूप में पहुँचता है।

मेरी पूरी पढाई हुई थी बिहार में। केवल गर्मी की छुट्टियों में महाराष्ट्र के अपने छोटे से गाँव धरणगाँव में जाते थे। मेरा महाराष्ट्र - परिचय बस उतना ही था। मेरी आईएएस की परीक्षाएँ चल रही थीं कि शादी तय हुई। इधर रिझल्ट आया, उधर शादी। फिर प्रकाश की पोस्टिंग थी कलकत्ता और मेरी ट्रेनिंग थी मसूरी में- वहाँ आठ महीनों के बाद ऑर्डर आई कि मुझे महाराष्ट्र काडर अलॉट किया गया है। इसका अर्थ हुआ कि मेरी अगली सारी नौकरी महाराष्ट्र में होगी और कभी कभार दिल्ली में। प्रकाश को ट्रान्सफर के लिए दो च्वॉईस थे- पुणे या मुंबई। हमने पुणे में बस जाने का निर्णय लिया।

मसूरी ट्रेनिंग के बाद मुझे अगले एक वर्ष के जिला ट्रेनिंग के लिए औरंगाबाद में पोस्टिंग मिली। इसके एक ही महिने के दौरान हमारे चीफ सेक्रटरी श्री साठें वहाँ आए। मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई। नियम था कि जिस डिविजन में ट्रेनिंग हुई उसी में प्रांतसाहबी की पोस्टिंग मिलेगी। अर्थात्‌ प्रकाश के पुणे आने के बावजूद मुझे अगले तीन वर्ष पुणे जाने का मौका नही मिलेगा। श्री साठे ने आश्र्वासन दिया कि वे कुछ करेंगे।

तब मेरी ही एक बॅचमेट सुषमा को ट्रेनिंग के लिए पुणे पोस्टिंग दी गई थी। एक सप्ताह से पहले ही हम दोनों की अदला बदली की ऑडर मिली और मैं पुणे में हाजिर भी हो गई।

यह वर्क एफिशियंसी मेरे लिए हमेशा रोल मॉडेल के रूप में रही। सुषमा की शादी मध्यप्रदेश के हमारे दूसरे बॅचमेट से तय थी और उसे वहाँ चले जाना था। लेकिन इस बदलाव पर उसने कभी कोई कटुता नही दिखाई। उस जमाने में सभी सिनियर अधिकारी अपने ज्यूनियर्स के साथ बहुत अपनापन रखते थे। औरंगाबाद में तो चूँकि मैं रेस्ट हाऊस में थी तो मेरा नाश्ता, खाना सब कुछ कलेक्टर के घर में ही होता था जो बगल में ही था। आज के अफसरों की बीच यह अपनापन लुप्त सा होता जा रहा है। ध्यान देने की बात है कि पूरे भारत का प्रशासन चलाने के लिए ब्रिटिशों के पास केवल दो तीन हजार आईसीएस अफसर थे। आज भी केवल पांच हजार के करीब हैं। यदि उनमें अपनापन नही हुआ तो प्रशासन भरभरा कर टूट सकता है। इसी लिए उन दिनों हर सिनियर अफसर की जाँच होती कि वह अपने ज्यूनियर्स के लिए कितना अपनापन दिखाते हैं, उनकी शिक्षा दीक्षा में कितनी जिम्मेदारी निभाते हैं। कोई सिनियर ऐसा नही करे तो उसके सिनियर्स उसका काऊन्सेलिंग करते थे।

इस प्रकार मेरे प्रशिक्षण का एक वर्ष और पोस्टिंग के दो वर्ष पुणे में बीते। तब भी मेरा रूतबा प्रांत साहब का ही था। बिहार की तुलना में- और धरणगॉव की तुलना में भी यहाँ सब कुछ अलग था।
------------------------------------------------------

कोई टिप्पणी नहीं: