शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --10-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --10
मेरे प्रशिक्षण कार्यकाल में भी मैं अच्छी खासी टूटिंग कर लेती थी। और प्रांतसाहब की पोस्टिंग के बाद तो यह काफी बढ गई। महीने में अठारह दिन टूर, जिसमें दस नाईट हॉल्ट कम्पल्सरी थे। कहने को तो ऑफिस साढ़े दस से साढे पांच होता था लेकिन सारे मंत्री, सिनियर्स, व्ही आय पी, लॉ ऍण्ड ऑर्डर, व्हिलेज इन्सपेक्शन, लगान वसूली और लेव्ही या फॅमिली प्लानिंग जैसे कॅम्पेन के कारण ऑफिस जाने के या आने के समय की कोई गॉरन्टी नही थी। इसके ठीक उलटा प्रकाश के जाने आने का समय बिल्कुल घड़ी की तरह था। सुबह सात से लेकर शाम के सात। थोड़े ही दिनों में हमने अपना रूटिन इसी हिसाब से ऍडजस्ट कर लिया।

फिर आहट हुई घर में एक नन्हा मेहमान आने की। उसी समय हम घर में एक अल्सेशियन पपी भी ले आये, उसका नाम रखा टोटो। आदित्य और टोटो करीब करीब साथ साथ ही बडे हुए। टोटो को प्रकाश ने बडी अच्छी ट्रेनिंग दी थी जिससे वह पूरे इलाके में प्रसिद्ध था।

आदित्य के जन्म से पहले मैं अकेली ही टूर पर जाती और कभी कभी प्रकाश भी साथ होते। पुणे के आसपास कई शिवाजी कालीन किले हैं, वह दुर्गभ्रमण हम दोनों को पसंद था। आदित्य के जन्म के बाद मेरे नाइट हॉल्ट का प्रोग्राम सदलबल होने लगा- मेरे साथ आदित्य, उसकी बूढी आया, ऑफिस का चपरासी, टोटो, उसके खाने-बिछाने का सामान इत्यादि। वे सारे डाक बंगले में रूकते थे और मैं जाकर अपना काम करती। कभी कभी प्रकाश भी साथ हो तो वे सारे किले और पहाड़ों पर निकल जाते। इस प्रकार टोटो और आदित्य ने वे सारे पहाड़ और किले घूम लिये। आज इतने वर्षों बाद भी डाक बंगले के पुराने नौकर, खानसामें और पुराने पटवारी टोटो को याद कर लेते हैं और आदित्य का हालचाल पूछ लेते हैं।
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इसी दौरान लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई और मैंने जान लिया कि अब तो मेरा काम और भी बढेगा। सो मैंने दो महीने आदित्य को माँ के पास रखने का फैसला किया। इससे पहले भी एक महीने ट्रेनिंग के लिये मसूरी जाना पड़ा तब आदित्य मुंबई में मेरी सासूजी के पास रहा। मैं यदि कहूँ कि आरम्भिक कार्यकाल में मेरी कार्यक्षमता बढाने में आदित्य की दादी- नानी का बडा हाथ था, तो यह अतिशयोक्ति नही होगी। मेरे ही नही बल्कि मेरी बहन और भाई के बच्चे भी कई कई महीने मेरी माँ के पास रहे हैं और आज भी अपने माँ-बाप से अधिक मेरे माँ-पिताजी को मानते हैं। मुझे लगता है कि एकत्रित कुटुम्ब पद्धति की यह बडी विशेषता थी। आज भी यदि सास-बहू, या ननद-भाभियाँ आपसी रिश्ते में एक दूसरे का सम्मान बरकरार रखें तो इस विशेषता का लाभ उठा सकती हैं। मेरी तीनों ननदें मुझसे बडी और खुद नौकरी वाली थीं। अतएव मेरी सासूजी भी मेरी नौकरी की आवश्यकताओं को समझती थीं और उनका खयाल रखती थीं। हम दोनों के बीच एक कड़ी और थी। यद्यपि वे विशेष पढी लिखी नही थीं लेकिन रोजाना तीन अखबार पढती थीं और पोलिटिक्स की अच्छी समझ रखती थीं। उन्हें इस विषय पर चर्चा के लिये मुझसे अच्छा किस्सागों घर में और कोई नही था। सो वे मेरे काम में काफी रूचि लेती थीं।
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