शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --19-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --19
मेरे पांचों तहसिलों में से सबसे निर्धन था वेल्हा तहसिल। वहाँ खाने रहने की सुविधाएँ शून्य थी। रेस्ट हाउस का खानसामा चाय बना देता था, वरना गाँव के बस स्टॅण्ड पर भी चाय बेचने वाला कोई नही था। वहाँ मुझे दिन का या रात का खाना लेना हो तो मैं मंगवाती थी केवल भाकरी- अर्थात जवार या बाजरे की मोटी रोटी, साथ में लहसन की चटनी और एक प्याज। सीजन हुआ तो एक ग्लास गन्ने का रस। वेल्हा के तहसिलदार भी रोज पुणे से आते जाते थे। लेकिन बाद में उनका तबादला हो गया और नए तहसिलदार आए कुलकर्णी जो परिवार समेत वेल्हा में ही रहने लगे। अब जब कभी मैं वहाँ जाती तो श्रीमती कुलकर्णी घर से ही मेरे लिये खाना भिजवाती- कभी खुद भी आकर बतियाने लगतीं। अक्सर से दुख जताती कि अब गांवों में कोई ब्राह्मण परिवार नही बस सकते। यह मेरे लिए नई बात थी। जहाँ मैं बडी हुई- उस बिहार में दसियों जातियाँ थी जो हर गांव में पाई जा सकती थीं। महाराष्ट्र के धरणगांव में मेरा जन्म हुआ था। वहाँ हम लोग हर गर्मी की छुट्टी में आया जाया करते थे और वहाँ ऐसी कोई समस्या नही थी। लेकिन मिसेज कुलकर्णी के बताने पर पहली बार मैंने ध्यान दिया कि वाकई पुणे जिले के गांवों में बाह्मण परिवार नही के बराबर थे। इसकी वजह थी सन्‌ अडतालीस की वह संध्या जब एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण गोडसे ने गांधीजी का वध किया था। पश्च्िाम महाराष्ट्र में बिहार के गांवों की तरह दसियों जातियाँ नहीं हैं- एक ही मराठा जाती के सत्तर अस्सी प्रतिशत लोग होते हैं और बाकी सारी जातियाँ मिलकर बीस तीस प्रतिशत। जैसी ही गांधीवध हुआ, अहिंसा का संदेश देने वाले गांधी जी के अनुयायी कांग्रेसियों ने गांव गांव में ब्राहमणों के घर जला डाले- संपत्ति लूट ली और उन्हें गांव से बाहर खदेड दिया। उस सकते से पश्चिम महाराष्ट्र का मानस आज भी उभर नही पाया है। इस जातीगत राजनीति से मैं आजतक अज्ञानवश अछूती और परे थी। आगे भी इससे परे रहना हो तो मुझे गहरे अध्ययन और चिन्तन की आवश्यकता होगी, यह मैंने ठान लिया।

जैसे वेल्हा तहसिलदार का था, वही हाल वडगाँव तहसील का। पुणे से वडगांव पहुँचने के लिए हर दो घंटे में लोकल ट्रेन है जो एक घंटे में वहाँ पहुँचा देती है। इसलिए मावल में नियुक्त हर कर्मचारी वडगांव की बजाए पुणे में ही रहता था। उन दिनों सबके पास फोन या मोबाइल भी नही होते थे। कानून व्यवस्था की दृष्टि से यह व्यवस्था कभी भी विस्फोटक बन सकती थी। पुलिस अधिकारियों का भी प्रायः यही हाल था। लेकिन दूसरी तरफ से देखा जाए तो वडगांव में महसुली, जिला परिषद या पुलिस कर्मचारियों के रहने के लिए न ही पर्याप्त घर थे न अच्छे स्कूल और अस्पतालों की सुविधा। यही हाल प्रायः हर तहसील में था। अच्छे प्रशासन के लिए ऐसे कई मुद्दों की चर्चा होना आवश्यक होता है। लेकिन चर्चा व सामंजस्य का अभाव आज भी है।
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