शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --11-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --11
लोकसभा चुनाव एक तरह से शादी के तामझाम की तरह होते हैं। कितना भी काम करो, कम ही है। पूरी जिम्मेदारी कलेक्टर की। इलेक्शन के काम के लिये वह जिले में स्थित किसी भी सरकारी कार्यालय से चाहे जितने कर्मचारी, गाडियाँ और अन्य सामग्री रिक्विझिशन कर सकता है।

फिर इन कर्मचारियों को प्रशिक्षण भी देना पड़ता है- जो जिम्मेदारी प्रांत अधिकारी की थी। कुल तीन बार ट्रेनिंग क्लास लेनी थी। हालाँकि मेरे लिये भी यह काम नया ही था लेकिन किसी जमाने में कॉलेज में लेक्चरी की थी जो काम आ गई। उस ट्रेनिंग को भी लोग याद करते हैं।

लोकसभा चुनावों में इंदिराजी हारीं- और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। इस चुनाव में एक घटना घटी जिसने आगे चलकर मुझे भी प्रभावित किया।

हुआ यों कि पुणे जिले की तीन लोकसभा सीटों में से एक खेड लोकसभा सीट के लिये ऍडिशनल कलेक्टर अरूणा बागची रिटर्निंग ऑफिसर थीं। यह तय था कि इस सीट के लिए अण्णासाहब मगर को कांग्रेसी टिकट मिलेगा और वे जीतेंगे भी। लेकिन एक समस्या थी। पिंपरी चिंचवड म्युनिसिपल कार्पोरेशन हाल में ही बना था, उसका पहला चुनाव होना बाकी था, अतएव एक्ट के मुताबिक राज्यपाल ने अपने अधिकार में अध्यक्ष के पद पर अण्णासाहब की नियुक्ति की थी। यदि वे लोकनिर्वाचित अध्यक्ष होते तो कोई बात नही थी। लेकिन फिलहाल वे सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष थे। अतएव मुद्दा यह उठा कि क्या वे वहाँ से पदत्याग किये बगैर चुनाव में उम्मीदवार बन सकते हैं?

बागची ने अपने कार्यालय में अच्छे अच्छे वकीलों को बुलाकर उनसे राय सलाह आरंभ कर दी। उन मीटींगों में मैं भी शामिल थी। उधर अण्णासाहब के वकील भी अपनी राय बनाने लगे। अभी नामांकन पत्र भरने में देर थी लेकिन यह कानूनी पेचिदगी अखबारों में भी छपी। सारी चर्चा एक मुद्दे पर टिक गई कि 'एन्जाईंग ऑफिस ऑफ प्रॉफिट अंडर अपॉईंटमेंट ऑफ गवर्नमेंट' का क्या अर्थ निकाला जायगा। इधर अण्णासाहब की ओर से दुहराया जाने लगा कि पदत्याग आवश्यक नही और वे नही करेंगे। उधर बागची के ऑफिस से कहा जाने लगा कि यदि पदत्याग न किया हो तो नामांकन जाँच के दिन बागची उनका नामांकन नामंजूर कर देगी। यह भी महत्वपूर्ण है कि ऐसे मामलों में रिटर्निंग अफसर का
फैसला अन्तिम माना जाता है। हमलोग उत्सुकता से इंतजार कर रहे थे कि नामांकन वाले दिन दोनों पक्षों के वकीलों में क्या बहस होती है और बागची क्या फैसला देती हैं।

लेकिन नामांकन भरने से एक दिन पहले अण्णासाहब ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। सारा सस्पेन्स, सारी रोचकता, गरमा गरम बहस, सब कुछ गुब्बारे की तरह पिचक कर शून्य हो गया। यही रोचकता तो सरकारी दफ्तरों की जान होती है, उसे अण्णासाहब ने नाकारा कर दिया। खैर!

पिंपरी चिंचवड कार्पोरेशन के लिये राज्यपाल ने मामासाहब मोहल को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। एक किस्सा खतम हो गया। अण्णासाहब चुनाव लडे, जीते और लोकसभा में आ गए। लेकिन अगले ही वर्ष महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव घोषित हुए जिसमें हवेली विधानसभा सीट के लिये मैं रिटर्निंग अफसर थी और मामासाहेब कांग्रेसी टिकट पर चुनाव लड़ना चाहते थे। इस बार देशभर में कांग्रेस विरोधी माहौल था। मामासाहेब को कोई गॅरंटी नही थे कि वे जीतेंगे, अतः वे अपने म्युनिसिपल अध्यक्ष के पद को छोड़ना नही चाहते थे। अन्त में पुणे जिले के सभी दिग्गज नेताओं की राय से उन्होंने तय किया कि वे इस्तीफा नही देंगे।

यहाँ वही खेल मैं खेल सकती थी जो बागची ने किया था। मैं राय सलाह के लिए वकील बुला सकती थी। लेकिन मुझे अनुभव नही था। मैंने सोचा- सारी बहस तो मैं सुन चुकी हूँ। बागची बनाम अण्णासाहब के बहाने सारे कानून मैंने भी पढ डाले हैं। यह तो बड़ा स्पष्ट मामला है-'एन्जाईंग ऑफिस ऑफ प्रॉफिट अंडर अपॉईंटमेंट ऑफ गवर्नमेंट' का।

नामांकन पत्र जाँचने का दिन आया तो मामासाहेब के अलावा उनके वकील और जनता दल के उम्मीदवार के वकील भी आए। मामासाहब के वकील ने कहा- आप इन्जाईंग शब्द पर ध्यान दीजिए। मामासाहेब नियुक्त अध्यक्ष होने के बावजूद कार्पोरेशन से केवल एक रूपये का टोकन मासिक वेतन लेते हैं तथा ऑफिस आने जाने के लिए अपनी ही कार का इस्तेमाल करते हैं। इसे 'एन्जाईंग' नही कहा जा सकता। बात थी बाल की खाल निकालने वाली।

ऐसे मौके पर चुनाव अधिकारी जो भी जाँच पडताल करता है वह समरी इन्कवायरी होती है। नियम में लिखा हुआ है- 'चुनावी अधिकारी अपनी विवेक बुद्धि से निर्णय करे।' यहाँ कानूनी बहस की बात नही थी। केवल सबको अपनी बात रखने के लिए मौका देना काफी था।

लेकिन दूसरे उम्मीदवारों ने कहा- यह दावा गलत है कि मामासाहेब अपने अध्यक्ष पद को 'एन्जॉय' नही कर रहे। क्योंकि इनका टेलिफोन बिल, मेडिकल बिल भी कॉर्पोरेशन देती है और ये कार्पोरेशन की कार भी इस्तेमाल करते हैं- आप चाहें तो लॉग बुक मंगवा कर देखें। वैसे अध्यक्ष के नाते उनको ये हक है। लेकिन फिर वे 'इन्जाईंग' की व्याख्या में आ जायेंगे।

मैंने अपना निर्णय एक दिन के लिये रोक दिया और कार्पोरेशन को आदेश भेजा कि सारे कागजात मेरे सामने हाजिर करें।

अगले दिन क्या निर्णय होगा यह भी तय था, केवल कार्पोरेशन के रेकॉर्ड मेरे सामने आने की देर थी। दूसरे दिन निर्णय सुनने के लिए बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई। कागजपत्रों ने बता दिया कि मामासाहेब उन सारी सुविधाओं का लाभ उठाते थे जो अध्यक्ष के नाते उन्हें मिली हुई थीं। अर्थात एन्जॉय शब्द उन पर लागू हो रहा था। उनका नामांकन रद्द हो गया। उनके डमी कॅन्डिडेट लांडगे का नामांकन स्वीकृत हो गया। लेकिन चुनाव में कांग्रेस वह सीट हार गई।

मामासाहेब ने हाईकोर्ट में अपील भी की लेकिन हाईकार्ट ने मेरे निर्णय में कोई परिवर्तन करने से मना कर दिया। बाद में एक बार मामासाहब ने अपने मन की खुदबुद मेरे सामने कह डाली- आखिर वह समरी इन्क्वायरी थी, आप कागजपत्र देखने से मना करतीं तो मेरा नामांकन स्वीकृत हो जाता और मैं जीत जाता। आपने जानबूझकर मुझे हराया। मैंने कहा- समरी इन्क्वायरी का अर्थ यह नही कि कुछ भी मत देखो- उसका अर्थ यही है कि अपनी तसल्ली लायक कागज मिल जायें तो बाकी निर्णय अपने विवेक से लो। आखिर आप भी अण्णासाहब की तरह पहले ही पदत्याद करते तो यह नौबत नही आती। खैर! मामासाहब तो पिंपरी चिंचवड कार्पोरेशन के अध्यक्ष बने रहे लेकिन पुणे के कई दिग्गज कांग्रेसी नेता मुझसे रूष्ट बने रहे कई वर्षों तक।
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