सोमवार, 2 नवंबर 2015

दूर-संचार की दिशा में प्रभावी पहल

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दूर-संचार की दिशा में प्रभावी पहल

DESHBANDHU  24, JUN, 2014, TUESDAY


लीना मेहेंदले

विकास के लिए यातायात की सुविधा का महत्व समझते हुए एक अच्छा प्रयास अटल बिहारी वाजपेयीजी के कार्यकाल में हुआ था।
उन्होंने देश के चार कोनों को जोडऩे वाली चार बड़ी सड़कें और आमने-सामने वाले कोनों को मिलाने वाली दो और बड़ी सड़कें, इस प्रकार ''स्वर्णिम चतुष्कोणÓÓ की कल्पना की थी और उस दशा में सार्थक प्रयास भी आरंभ किए थे। आज उसका अच्छा लाभ देश को मिल रहा है। इसकी चर्चा मैंने 2006 में अपने मराठी लेख ''तीन उत्साही पावलेÓÓ में की थी।
इस प्रकार हाई-वे बनते हैं, तब अगल-बगल के गांव, शहर उनसे जुडऩे आरंभ हो जाता है। संचार का माध्यम तैयार होने से यातायात बढ़ जाती है। अधिकतर यही होता है कि गांव के लोग शीघ्रता से निकलकर बड़े शहरों तक पहुंच जाते हैं जहां रोजगार भी है और आकर्षण भी, सुविधाएं भी हैं और संभावनाएं भी। जब सड़कें नहीं थीं या कम थीं तब भी लोग गांव छोड़कर शहर जाते ही थे।
लेकिन सड़कें बनने से जब शहर जाना सुगम हो गया तब सोच में एक परिवर्तन आया कि अब शहर से गांव को वापस जाना भी सुगम है। इस प्रकार संचार को एक तरफा न रखकर दो तरफा बनाने के ध्येय में पहला कदम तो पूरा हो गया- सोच को बदलने का! लेकिन यदि वास्तव में शहर से गांव की ओर लौटना हो तो गांवों में संभावनाएं बढऩी भी आवश्यक हैं। इस कमी को केवल सड़कें पूरी नहीं कर सकतीं। हमें आवश्यकता है कुछ अदृश्य टाइप के हाई-वे की। मेरा इशारा ऑप्टिकल फायबर केबल की ओर है।
देश में टेलीकॉम के आरंभिक दिनों में जब केवल सरकारी टेलीकॉम विभाग था तब बहुतायत से सारा टेलीकॉम नेटवर्क सरकार के ही अंतर्गत था और उस नेटवर्क के लिए तांबे के तारों के जाल बिछाए जाते थे। 1990 तक इसमें कोई अन्य संभावनाएं बन नहीं पाई थीं।
नब्बे के दशक के प्रारंभ से ही देश में संगणकों का बोलबाला आरंभ हो गया। इसका कारण यह था मायक्रोसॉफ्ट के द्वारा विण्डोज का पैकेज बाजार में उतारा जाना। इस पैकेज के कारण संगणक पर रोजमर्रा के काम करने के लिए प्रोग्रामिंग सीखने की आवश्यकता समाप्त हो गई। इसके पहले संगणकों में प्रोग्रामिंग और सुविधाएं एक-दूसरे से अभिन्न थे। जिसे प्रोग्रामिंग आती थी, संगणक की सुविधाएं केवल उसी को मिल सकती थीं। किसी भी नई सुविधा के लिए या पुरानी में कुछ नया जोडऩे के लिए प्रोग्रामर्स की आवश्यकता होती थी जो उच्च शिक्षित थे वे ऊंची कीमत भी लेते थे। लेकिन विण्डोज के आने से कई तरह की सुविधाएं सामान्य व्यक्ति की पहुंच में आ गईं। बड़े-बड़े कार्यालयों में भी अधिकांश लोगों को संगणक का उपयोग करना आ गया। अब प्रोग्रामर्स की आवश्यकता केवल उनके लिए बाकी रही जिन्हें ग्राहकों को नई-नई सुविधाएं खोज कर देनी थी। वह काम भी कम नहीं था और संगणक के सारे उच्च शिक्षित प्रोग्रामर्स को भरपूर काम मिलता रहे इतनी नई-नई कम्पनियां खुलती रहीं आज भी खुल रही हैं। लेकिन एक सामान्य व्यक्ति संगणक से सामान्य तरह की सुविधा लेकर काम चलाना चाहता है। ऐसे अधिकांश ग्राहकों के लिए प्रोग्रामिंग नामक माथापच्ची टल गई। खासकर जब 1995 में वल्र्ड वाईड वेब की परिकल्पना आई तो संगणक के सामान्य ग्राहक के लिए इतनी अधिक सुविधाएं सरल हुईं कि संगणक भी एक घरेलु आवश्यकता बन गया और इंटरनेट एक घरेलु शब्द बन गया। इस इंटरनेट के लिए घरेलु टेलिफोन कनेक्शन का माध्यम आवश्यक था। इंटरनेट के आरंभिक काल में ही लगने लगा कि बढ़ती मांग के लिए टेलिफोन के तांबे के तारों से अलग कोई माध्यम सोचना पड़ेगा जो संदेशों को अधिक तेजी से और अधिक बड़े पैमाने पर ढोकर ले जा सके। वह अलग माध्यम था- ऑप्टिकल फायबर केबल। 
तो जिस प्रकार एक लम्बी चौड़ी अच्छी सड़क ट्रकों को और उसमें रखे सामान को अधिक तेजी से और अधिक सरलतापूर्वक ढोकर ले जा सकती है और दूर-दूर तक पहुंचा सकती है, उसी प्रकार तांबे के तार की तुलना में ओएफसी बिछाने पर संगणक (या मोबाइल) द्वारा भेजे गये संदेश अधिक सुगमता से और बड़े अनुपात में पहुंचाये जाते हैं। इस बात को पहचान कर स्वीडन देश में एक नीति बनी। वहां की सरकार ने बड़े खर्च पर मुख्य ओएफसी का जाल पूरे देश में बिछाया। वहां से थोड़े मीडियम साइ•ा केबल्स द्वारा प्रत्येक गांव तक ओएफसी पहुंचाकर उस छोर को गांव की पंचायत को सांैप दिया ताकि वह गांव के लिए आय का स्रोत बना रहे। फिर गांव की छोटी-छोटी संगणक आधारित सुविधा देने के लिए जो भी आगे आए उसे इंटरनेट कनेक्टिविटी दी जायेगी। वह गांववालों के लिए विभिन्न प्रकार की इंटरनेट जानकारी सांख्यिकी आदि सेवाएं उपलब्ध करा सकता है। कनेक्टिविटी के लिए मिलने वाली आय गांव-पंचायत की मिलेगी।
इस प्रकार एक ओर गांव पंचायत को आय का स्रोत मिला, दूसरी ओर गांव में इंटरनेट आधारित सुविधाएं उत्पन्न होने से गांव को, शहरों का मुंह नहीं देखना पड़ता। तीसरे, गांव में कम्प्यूटर आधारित छोटे-मोटे व्यवसाय शुरू हो गए जिससे ग्रामीण युवकों का शहरों की ओर पलायन रुक गया।
इस उदाहरण से यह देखा जा सकता है कि ओएफसी का इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रामीण इलाके तक ले जाने से समृद्धि के लिए कितना कारगार है। आज देश में रेल और तेल कंपनियों के द्वारा बड़े पैमाने पर सुदूर इलाकों तक ओएफसी के जाल बिछाए जा चुके हैं क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है। लेकिन विभिन्न विभागों में समन्वय के अभाव के कारण इस अत्यधिकता से उपलब्ध क्षमता को उपयोग में नहीं लाया जाना। जहां से उनकी बड़ी-बड़ी ओएफसी लाइनें जाती हैं, वहीं अगल-बगल में गांव होंगे जहां शायद टेलीफोन लाइनें भी न पहुंची हों। सवाल है केवल ओएफसी की ब्रंाच लाइनें बनाने का जिसका खर्च नई लाइन डालने की तुलना में नगण्य है।

आज देश के लिए सोचने की, देश के विकास के लिए समन्वयपूर्वक स्कीमें बनाने की आवश्यकता है। अत: सरकार को चाहिए कि इस दिशा में कारगर और सही प्रयास करे।




सुरीनामियोंकी चिन्ता

सुरीनामियोंकी चिन्ता

published in janasatta

सातवें विश्र्व हिंदी सम्मेफह्मन के उपफह्मक्ष्य में एकत्रित हुए िVह्मन सुरीनामियों से बातSह्म्रत करने का मौका मिफह्मा उनका उत्साह, प्रेम देखने फह्मायक था। उनमें उमंग थी कि उनके बाप-भाई, Vह्मा-Vह्मी, पुरखों देश से इतने सारे हिंदी-प्रेमी और विद्घVVह्मन उनके देश आए हैं और उनकी भाषा को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं। बहुत कुUळ हो सकता है इस सम्मिफिह्मत प्रयास से।

फह्मेकिन उनके दिफह्म में कई प्रश्निSह्मह्न भी हैं - कई िSह्मन्ताएँ भी हैं। उनकी पहफह्मी Sह्मता यह थी कि पिUळफह्मे एक सौ तीस वर्षो तक Vह्मो भाषा बSह्मी रही, क्या अगफह्मे तीस वर्षों में वह बSह्मी रहेगी ? पिUळफह्मी पीढ़ी तक माँ-दह्मह्म{ह्म बSSह्मों से सरनामी में ही बात करते थे क्योंकि उन्हें डSह्म उतनी अSUळी तरह से नहीं आती थी। फह्मेकिंन आVह्म की पीढ़ी के माँ बाप अपने बSSह्मों से डSह्म में बोफह्मते हैं क्योकि Yह्मान, विकास और रोVह्मगार की भाषा वही है। तो फिर तीस या पSह्मास वर्षों में Vह्मब अगफह्मी पीढ़ी आएगी तब सरनामी कहाँ होगी ?

दूसरी Sह्मता यह भी थी कि सरनामंी को यद्यपि हिंदी की एक बोफह्मी कहा Vह्मा सकता है, है तो वह हिंदी से अफह्मग ही। उनके बSSह्मे या वे स्वयं िVह्मसे अिvह्मक आसानी से समZह्म सकते हैं वह है सरनामी। तो क्या हिंदी |ह्ममी उनकी भावनाओं को समZह्मुगे ? सरनामी से उनका Vह्मह्मे भावनात्मक फह्मगाव है उसे सद्घह्मZह्मेंगे ? उसे अपने सरनामी स्वरुप में ही आगे बढ़ने देंगे या कि उसे बदफह्मकर - भफह्मे ही विकसित कर - हिंnड्ढ्र के रुप में ढ़ाफह्म देंगे? यदि आVह्म की सरनामी कफह्म हिंदी में ढ़फह्म गई तो सरनामंी का क्या होगा ? क्या सरनामी में ग्रंथ रSह्मना के फिह्मए इस हिंदी सम्मेफह्मन में कोई ठोस कार्यक्रम हाथ में फिह्मया Vह्माएगा?

तीसरी Sह्मता यह कि आVह्म सरनामी बोफह्मने वाफह्मे सभी फह्मह्मेग देवनागरी को नहीं पढ़ सकते हाँ, Sह्म पढ़ सकते हैं। तो क्या कोई समयबद्घ योVह्मना बन सकती ट्ठू कि एक +ह्म उनके प्रेरक ग्रंथों का - Vह्मूसे तुफह्मसी रामायण - Sह्म में अनुवाद हो और दूसरी ओर उन्हें अत्यंत सरफह्मता से देवनागरी फिह्मपी - सिखाने के फिह्मए कोई संगणक - vह्मारित कार्यक्रम हो।

उनकी सबसे बड़ी Sह्मता यह भी है कि आVह्म ही उन्हें अपने बSSह्मों को डSह्म की तरफ से अंग्रेVह्मी की ओर मोड़ने की आवश्यकता आन पड़ी है। तो फिर देवनागरी या हिंदी के सीखने में ऐसी कौनसी प्रेरणा है Vह्मह्मे इस तीसरे बोZह्म के फिह्मए उनके बSSह्मह्में को राVह्मी करे?

उनकी और भी समस्याएँ सुनीं - भाषा को फह्मेकर +{ह्मxह्म दह्मSSह्मह्मु Eॅ द्रह्मह्यम्ह्मरुद्यह्म Eॅह्म फह्मE- पांSह्मवीं, Uळठी, सातवीं ----- । उसके विषय में फिर कभी!