मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

2. पेपर लीक का जबाब है

परीक्षा प्रणाली में सुधार

कैट जैसी नामी गिरामी परीक्षा के भी प्रश्नपत्र फूटे, और वह भी पहले कई करोड़ो का बाजार कर चुकने के बाद ही फूटे इस बात से सारे हतप्रभ हो गए। करीब डेढ लाख विद्यार्थियों की मेहनत पर पानी फिर गया। उनके लिए परीक्षा की व्यवस्था करने वाले केंद्रों की मेहनत पर भी पानी फिर गया।
मुझे तत्काल कई पुराने वाकये याद आ गए। करीब तीन वर्ष पहले केंद्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षाएँ भी प्रश्नपत्र फूटने के कारण रद्द कर दी गई थीं। उससे पहले एक बार आई.आई.टी. के प्रश्नपत्र लीक होने से परीक्षाएँ रद्द हुईं। हमारे साहबजादे रेस-काम्पीटीशन इत्यादि में विश्र्वास नही करते और बड़ी मुश्किल से हमारे अभिभावक होने के रौब को मानकर एक बार ये पेपर्स दे चुके थे। जब दुबारा पेपर्स देने की बात सुनी तो साफ साफ बगावत का झंडा गाड़ दिया था। उसी वर्ष मेरी भांजी दसवीं की परीक्षा दे रही थी और गणित की तैयारी के लिए बड़ी मान मनौव्वल करके मुझे अपने शहर ले गई थी। दोपहर उसका पर्चा समाप्त हुआ, हमने खुशी खुशी देखा कि उसने अच्छा खासा हल कर लिया था। और शाम को टीव्ही ने ऐलान कर दिया कि मुंबई में गणित के प्रश्नपत्र फूट जाने से परीक्षा रद्द हो गई। कुहराम मच गया। बेचारी लड़की अगले पेपर का ख्याल छोड़कर रोने में जुट गई। खैर, अगले पाँच छः दिन अभिभावकों ने अपने को जब्त रखकर अगली परीक्षाएँ समाप्त कर लीं। फिर मुंबई में हजारों अभिभावकों की भीड़ सड़क पर उतर आई- आखिर कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और कहा कि चूँकि लाखों विद्यार्थियों में से कुछेक हजार ही इंजीनियरिंग की ओर जाते हैं- लिहाजा हरेक को यह सजा क्यो- परीक्षा दुबारा नही होंगी। एक ओर लाखों ने चैन की सांस ली तो दूसरी ओर यह बात काफी दिनों तक चुभती रही कि वे विद्यार्थी जो पेपर्स खरीद पाए, आखिरकार असत्यमेव जयते का नारा लगाने में सफल रहे।
ऐसे ही कई एक वाकये सभी के मन में होंगे। उनसे हम कितने दिन उदासीन रह सकते हैं?
आवश्यकता है हमारी परीक्षा प्रणाली में बदलाव की। मेरी मान्यता है कि यह काम मुश्किल नही है। संगणकों ने इसे सरल करने की संभावना दिखाई है- बशर्तें कि हम मौके का फायदा उठाएं।
परीक्षा और प्रश्न पत्र क्या हैं? कई लाख विद्यार्थियों की गुणवत्ता और क्षमता को जाँचकर उनमें से जो सबसे अच्छे हैं उनके चयन का, साथ ही सभी विद्यार्थियों की ग्रेडिंग का एक तरीका। इसके लिए हर वर्ष, हर परीक्षा के लिए एक पेपर सेट करना पड़ता है। अर्थात् उस पेपर सेटर के विषय में पूरी गोपनीयता रखने का सरदर्द। फिर उस पेपर की लाखों प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, अर्थात फिर एक बार प्रिंटींग प्रेस इत्यादि स्थलों पर गोपनीयता बनाए रखने का सिरदर्द। फिर उन पेपर्स को गोपनीय रखते हुए प्रत्येक परीक्षा केंद्र तक पहुँचाने का सिरदर्द। लाखों-करोड़ों छात्रों की परीक्षा का एक ही साथ आयोजन करने का सिरदर्द। सारे अभिभावक, छात्र, स्कूली व्यवस्थापन, शिक्षक सभी की जान उन थोड़े दिनों तक सांसत में। हर वर्ष।
अब यह दूसरा नजारा भी देखिए- मान लीजिए हमने हर विषय में हर कक्षा की स्तर के पाँच सौ,हजार या उससे अधिक प्रश्न तैयार कर उन्हें संगणक में डाल दिया। हरेक प्रश्न के उत्तर का संभावित समय और अंक भी संगणक को बता दिए। संगणक की यह जानकारी सबको मुहैय्या करा दी- हो जिसमें हिम्मत वह रखे याद सारे प्रश्नों को। इनमें से कई प्रश्न ऐसे होंगे जिनके लम्बे उत्तर लिखे जाएंगे। संगणक को बता दिया कि उसे इतने छोटे प्रश्न, इतने मंझोले प्रश्न और इतने बड़े प्रश्न पूछने हैं जिनके संभावित समय का योग तीन घंटे का होगा।
अब परीक्षाएँ वर्ष में एक बार आयोजित करने की जगह हर महीने में आयोजित हों। विद्यार्थी परीक्षा केन्द्र पर पहुँचे तो संगणक अपनी मर्जी से एक बेतरतीब प्रणाली- रॅण्डम सिस्टम का उपयोग करते हुए प्रश्नपत्र निकाल देगा। विद्यार्थी उसी के आधार पर अपना पर्चा लिखेगा।
इन उत्तर पत्रों की जाँच में संगणक को झोंकने की आवश्यकता नही है। जिस परीक्षा में केवल ऑब्जेक्टिव्ह सवाल पूछे जाते हैं- जैसा आज भी जी.आर., कैट या जी... परीक्षाओं में होता है- वहाँ तो
संगणक से स्कैनिंग करवा कर उत्तर पत्र जाँचे जा सकते हैं लेकिन जिन परीक्षाओं में लम्बे उत्तर लिखवाना आवश्यक है, उन्हें उसी पद्धति से जाँचा जा सकता है जैसे आज किया जाता है- अर्थात् एक्जामिनरों की मार्फत। उस व्यवस्था में तत्काल कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता नही है।
इस नई व्यवस्था के कई फायदे होंगे। सबसे बड़ा फायदा है कि सरकार, पुलिस का जाँच महकमा, शिक्षा-व्यवस्थापन, अभिभावक तथा विद्यार्थियों को सिरदर्द से मुक्ति। हर वर्ष नए नए पेपर्स सेट करवाने का झंझट खत्म। संगणक की प्रश्न संचयिका जितनी बड़ी होगी परीक्षा उतनी ही अधिक प्रभावी बनेगी। जब भी कभी नए प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे, उन्हें संचयिका में डाला जा सकता है।
हर विद्यार्थी का प्रश्नपत्र अलग होगा- इसलिए कॉपी की भी कोई संभावना नही रहेगी। हमारे प्रथा-अनुगामी कानों को थोड़ा अजीब लगेगा कि यदि हरेक का प्रश्नपत्र अलग हो तो उनकी सही तुलना कैसे होगी। लेकिन यह शंका बेमानी है क्यों कि प्रश्नों का चुनाव एक ही लेवल के मुताबिक किया जायगा। फिर यह भी संभव है कि किसी विद्यार्थी को एक बार अपना प्रश्नपत्र लौटाकर दूसरा माँगने की सुविधा दी जाए, ऐवज में उसके पांच अंक काटे जाएँ। विद्यार्थी चाहे तो वह परीक्षा छोड़कर अगले महीने फिर प्रयास कर सकता है। आज की तरह उसे एक वर्ष का इन्तजार नही करना पड़ेगा।
मेरी जानकारी है कि इस दिशा में कुछ छोटे मोटे प्रयास हो भी रहे हैं- आवश्यकता है कि सरकार इस प्रणाली को एक निर्धारित समय में प्रस्थापित करे और लागू करे।
मुझे याद आता है कि १९९५ के विधान सभा चुनावों के दौरान मैं नाशिक में कमिशनर थी तो मुझसे पूछा गया था कि क्या आप प्रायोगिक तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मशीनों से मतदान करवा पाएंगे। हमारी हाँ के बावजूद उस वर्ष चुनाव आयोग इलेक्ट्रानिक मशीन नही जुटा पाया। लेकिन आयोग के अफसर इस मुद्दे पर लगे रहे और आखिरकार सन् २००० के आते आते यह मशीन सब तरफ लागू हो गए।
इसी तरह यदि मानव संसाधन मंत्रालय चाहे तो यह नई परीक्षा प्रणाली भी एकाध वर्ष के अंदर ही लागू की जा सकती है।

- लीना मेहेंदले



21. अगस्त क्रांति भवन -- अर्थात् कथा 9 अगस्त की इमारत की

अगस्त क्रांति भवन

स्वतंत्रता दिवस न.जदीक आ गया है उससे पहले ८ अगस्त के क्रांति दिवस की यादगार भी देश में मनाई जाती है। ५६ वर्ष हो चले उस घटना को जब देश ने स्वतंत्रता पाई। तरक्की के कई कपने देखे और कई क्षेत्रों में तरक्की की भी। फिर भी कुल जोड़ यही रहा कि आज हम संसार के कई देशों के मुकाबले में पिछड़े हुए है। जनसंख्या तथा भूगौलिक क्षेत्र के रूप में एक विशाल विस्तृत बहु-आयामी तथा प्रतिभाशाली देश होते हुए भी प्रगति और उत्पादकता के मामले में हमारी गिनती सूची में बहुत नीचे पाई जाती है।
इस प्रश्न का उत्तर कोई बहुत कठिन नहीं कि ऐसा क्यों होता है। हमारे राष्ट्रीय चरित्र की कई खूबियाँ है या सच कहा जाए तो खामियाँ है जो हमारी प्रगति की राह में बाधा बन बनती है। ऐसे ही दो नमूनों की बात करने की इच्छा हुई जब मैंने अगस्त क्रांति भवन को देखा।
स्थल देश की राजधानी दिल्ली का शहर, उसमें भी साउथ दिल्ली और उसमें भी भीकाजी कामा प्लेस जैसा मशहूर काम्पलेक्स। इस काम्पलेक्स में एक ओर गेल, हडको, हयात रिजेंसी होटल, .आई.एल., संरक्षण भवन जैसी बड़ी-बड़ी संस्थाए अपने-अपने पॉश ऑफिसों में बैठी है, कई बिजनेस हाऊसिस मौजूद है। उन्हीं के बीच उनके भवन आर्किटेक्ट से मेल खाती खूबसूरत सी अगस्त क्रांति भवन की बिल्डिंग भी है जो पूरी तरह से खाली पड़ी है। उसमें कुछ नहीं होता यहाँ तक की सफाई भी नहीं। और ८अगस्त के दिवस पर जिसकी याद में यह बिल्डिंग बनी कोई कार्यक्रम नहीं होता। इस प्रकार अच्छे आदर्शों का डंका पीटकर एक बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर देना या एक-आद दिन उत्सब मना लेना ऐसा आसान काम है जो हम कर लेते है लेकिंन खड़ी की गई एक इमारत को समूचित तरीके से उपयोग में लाना हमें नहीं आता। चूंकि मेरा कार्यालय भी भीकाजी कामा प्लेस में ही है तो अकसर मैं इस बिल्डिंग को देखती हूँ और आश्चर्य करती हूँ कि अब तक इस पर अराजक तत्व के लोगो ने कब्जा कैसे नहीं किया।
बाहर हाल ८ अगस्त का दिन हमारे सामने है और इस यादगार दिन की याद को संजोए रखने के लिए बनाई गई खाली पड़ी यह सरकारी बिल्डिंग भी।
राष्ट्रीय संपत्त्िा को गवाँने का एक और काम होता है सरकारी कार्यालयों में छुट्टी के माध्यम से। एक ऐसे देश में जो अपनी सांस्कृति विरासत पर गर्व करता है। भगवत्‌-गीता की तथा उसके कर्मयोग की दुहाई देने में पीछे नहीं रहता। उसी देश के प्रशासन में यह गिनती कोई नहीं करता कि एक साल के कितने दिन हम छुट्टीयाँ मनाते है। ३६५ दिनें में १०४ दिन शनिवार, रविवार की छुट्टीयों के उसके अलावा १६ दिन सरकारी छुट्टीयों के फिर हर सरकारी कर्मचारी सालभर में ८ दिन आकस्मिक छुट्टीयों के लिए २२ दिन अर्जित छुट्टीयों के लिए और २० दिन मैडिकल छुट्टीयों के लिए दिए जाते है। कुल हिसाब हुआ १७० दिनों का। इस पर तुर्रा यह कि किसी भी सरकारी कार्यालय के आधे से अधिक कर्मचारी सीट पर बैठे नहीं होते। या तो वह लेट पहुँचेंगे या जल्दी ही ऑफिस से निकल जाऐंगे। लन्च ब्रेक भी कागज पर आधे घंटे का लेंकिन वास्तव में एक से डेढ़ घंटे तक कुछ भी हो सकता है। इसी माहौल में २० से ३० प्रतिशत ऐसे भी अधिकारी और कर्मचारी हैं जो बहुत कम छुट्टी लेते है और ऑफिस समय से कई अधिक देर तक काम करते हैं। सच पूछा जाए तो इन्हीं की बदौलत ऑफिस चलते भी हैं। लेकिंन पिछले ५६ वर्षों का ग्राफ तुरंत बता देरा है कि इनकी संख्या घट रही है।
लोग अकसर पूछते है कि सरकारी ऑफिसों में काम क्यूँ नहीं होता और यदि होता है तो उसका सुपरिणाम क्यों नहीं दिखता।
कुछ वर्ष पूर्व मेरे पास दो पन्नों का एक पैमप्लेट आया जो इंदौर की किसी संस्था ने प्रकाशित किया था इसका शीर्षक था 'छुट्टीयाँ कम करो अभियान'। लोगो से अपिल की गई थी इस अभियान में जुटने की और एक फार्म बी साथ में था। वह तो मैंने भी भर कर भेज दिया। पर आगे इस अभियान की बाबत कुछ सुनने में नहीं आया।
इसका एक सीधा-सादा उत्तर तो यह है कि सरकारी ऑफिसो में छुट्टीयों कि बहुलता है और काम न करने वाले को इनाम है कि उनसे कोई सवाल नहीं पूछा जाएगा और जहाँ तक सवाल है काम हो जाने का किन्तु सुपरिणाम न दिखाई पड़ने का तो अगस्त क्रांति भवन जैसी इमारत की व्यर्थता इसका जवाब दे सकती है।
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