शनिवार, 24 मई 2008

मेरी प्रांतसाहबी --3-- My days as Assistant Collector

मेरी प्रांतसाहबी -- My days as Assistant Collector --3
हवेली प्रांतसाहेब की कार्यकक्षा में पुणे शहर के चारों ओर बसी हवेली तहसील, और पुणे के पश्चिमी भाग में भोर, वेल्हा, मुलशी और मावल तहसिल पड़ते थे। इन चारों के वासी मावले कहलाते हैं और शिवाजी के जमाने में इन्होंने जो पराक्रम दिखाए उनका कोई सानी नही। हवेली तहसिल का इलाका जितना वैभव संपन्न था, बाकी चारों तहसीलें उतनी ही विपन्न। पूरा इलाका सह्याद्री के ऊँचे, दुर्गम चट्टानों से बना। ऐसी विपन्नता जिसे मराठी में 'अठरा-विश्व-दरिद्री' कहा जाता है। पांचों तहसिल मिलाकर कुल हजार बारह सौ पटवारी, हर गाँव में एक एक पोलिस पाटील, एक कोतवाल (यह पुराने जमाने के सामर्थ्यशाली कोतवाल से अलग होता है) सौ पचास मंडल अधिकारी, पांच तहसीलदार, उनके और मेरे ऑफिस के हेड क्लर्क, नाझिर क्लर्क(अर्थात अकाऊटेन्ट)- यों कहें कि कुल दो हजार लोगों का एक कुनबा था। उनसे अच्छा काम करवाना, अच्छे काम की शाबासी देना, जरूरत पड़ने पर बुरे काम की सजा, यह देखना कि लोगों से उनका बर्ताव कैसा है, किसान के साथ कितना न्याय या अन्याय करते हैं, लगान वसूली में कोताही, मेरे अपने ऑफिस में कोर्ट की हैसियत से किए जाने वाले काम............. कुल मिलाकर कामों की भरमार! चौबीस घंटे की डयूटी। कहने को छुट्टियाँ थीं- कैजयुअल लीव्ह, अर्नड् लीव्ह, मेडिकल लीव्ह। लेकिन मेरी सारी छुट्टियाँ हमेशा लॅप्स हो जातीं। रविवार की छुट्टी भी मैं कभी कभार ही लेती। इसके विपरीत प्रकाश का ऑफिस घड़ी पर चलता। सुबह ठीक सात बजे घर से निकलता और शाम के ठीक सवा सात बजे घर वापस- चाहे कोई घड़ी मिला ले। उधर बचपन में पिता प्रोफेसर थे वह भी रिसर्च इन्स्टिटयूट में। सो वहाँ छुट्टियाँ होती थीं। यह मुझे कई वर्षों तक खलता रहा कि मेरे काम में इतनी कम छुट्टियाँ थीं। धीरे धीरे मैंने थोड़ी बहुत छुट्टियाँ लेना सीख लिया। लेकिन प्रांतसाहबी के काल में कोई छुट्टी नहीं। और डयूटी भी कितने घंटे की? दिन में केवल चौबीस घंटों की डयूटी। कितनी देर तक काम करना है और कब सारे पेंडिंग कामों के बावजूद 'अब बस' कह देना है, यह सीखने में भी मैंने देर लगाई। लेकिन दो बातें सीखीं पूरा करना है और एक यह कि काम हर हालत में अच्छा करना है। इसी से काम कभी बोझ नहीं बना।
खास पुणे शहर मेरी कार्यकक्षा में नही था। वहाँ के लिए अलग तहसिलदार होते थे जो सीधे कलेक्टर को रिपोर्ट करते थे- इसलिए कि पुणे शहर के सारे प्रश्न, सारी समस्याएँ अलग थीं और कलेक्टर को उन्हें तत्काल निपटाना पड़ता था। इससे एक फायदा यह हुआ कि व्ही.आय्‌.पी. मैनेजमेंट की डयूटी मेरी नही रही और ग्रामीण इलाके में अपना काम करने के लिए मुझे अधिक समय मिला।

हवेली छोड़ दूसरे चारों तहसिल ठेठ ग्रामीण थे। और पहाड़ी भी। इन पर रास्ते भी बनाने हों तो घुमावदार, सँकरें ही रास्ते बन सकते थे। भारी वर्षा का इलाका। पूरा सहयाद्रि के ग्रेनाइटों से भरा- जिन्हें मराठी में कातल कहा जाता है। गरीबी की मार कायम। कहने को यह धान का प्रदेश था- अर्थात्‌ यदि थोड़ी भी अच्छी जमीन हो तो वहाँ धान उगाया जाता था- बाकी अस्सी-नब्बे प्रतिशन जमीन पर नाचणी नामक एक मोटा अनाज ( आजकल इसके पापड़ काफी प्रसिद्ध हो गये हैं क्योंकि डायाबिटिस के लिए अच्छे माने जाते हैं) या करौंदे या घास! धान की अत्यन्त सुगंधी और स्वादिष्ट प्रजाति आंबेमोहोर यहाँ उगाई जाती है। मेरा मानना है कि बिहार में पकने वाली धान की प्रजाति गमरी, और मावली तहसिलों की आंबेमोहोर स्वाद व सुगंधी में बासमती को भी मात दे सकती है- लेकिन बासमती की ये खूबी उनमें नही है कि पकने पर भी सारे दाने अलग अलग रहें।

लोनावला और खंडाला जो महाराष्ट्र के प्रसिद्ध टूरिस्ट केंद्र हैं, मावल तहसिल में पडते हैं। पुणे- लोनावाला- मुंबई दो सदियों से राजमार्ग है। इसी हायवे पर एक व्यापारी गॉव हैं कामशेत जहाँ लाखों टन आंबेमोहोर धान का व्यापार होता है। मुंबई के टूरिस्ट इसे खरीदे बगैर नही लौटते। फिर भी किसान के हिस्से में केवल गरीबी ही है।

महाराष्ट्र के भूगोल में उत्तर से दक्षिण सह्याद्रि का पठार और घाटियाँ हैं। घाटमाथे पर उत्तर से दक्षिण क्रम में पडने वाले जिले हैं नासिक, नगर, पुणे, सातारा, सांगली, कोल्हापुर। कोल्हापुर आते आते पठार की ऊँचाई समाप्त हो जाती है। उससे दक्षिण बेलगांव तो बिल्कुल तलछटी में है। सह्याद्रि के पश्चिम में कोंकण प्रदेश है। उधर से सहयाद्रि को देखो तो वह एक दुर्गम, आकाशगामी दीवार की तरह दीखता है। दीवार से नीचे कोंकण- बमुश्किल बीस'तीस किलोमीटर चौड़ाई का है- और फिर तत्काल समुद्र। लेकिन घाटमाथे के इस ओर- पूर्वी इलाके का दृश्य बिल्कुल अलग है। यहाँ पहाड़ की ऊँचाई धीरे धीरे कम होती है। घाटमाथे की नदियों का पानी पूर्व की तरफ बहता है। सो सारा प्रदेश पानी से भरपूर, बारहों महीने हरा भरा, साल में दो या तीन फसलों वाला है। सम्पन्न। लेकिन यह वर्णन पुणे के उन सात तहसिलों में लागू होता है जो पूरब की दिशा में पहाड़ से थोड़ा नीचे उतर चुके हैं। मेरे हिस्से के चार व अन्य तीन तहसिल तो मावली थे। दुर्गम काले पहाड़ जो साल में आंबेमोहोर की एक फसल के सिवा कोई फसल नही उगाते थे। रास्ते बनाना दूभर। हाँ घास के कारण पशुधन अच्छा था।
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