शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

शार्टकट से चिरंतन कुछ भी हासिल नहीं होगा

शार्टकट से चिरंतन कुछ भी हासिल नहीं होगा

देशबन्धु 10, AUG, 2012, FRIDAY 
लीना मेहेंदले



आखिर उपोषण इत्यादि से जनलोकपाल बिल नहीं लाया जा सकता- यह बात समझ में आने पर टीम अन्ना ने फैसला लिया कि अब वे इसे लाने के लिए राजकीय रास्ता अपनाएंगे और इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में एक राजकीय पक्ष के रूप में उतरने का निर्णय लिया। इस निर्णय पर तीव्र प्रतिक्रियाएं हुई हैं जिनमें क्रोध, हतबलता, उपहास और आशा ये चारों रंग अलग-अलग प्रतिशत में घुले हुए हैं।
मैं इस निर्णय को सही या गलत तो नहीं मानती लेकिन मेरे विचार में यह नितांत अपर्याप्त है। इसी कारण इसके कुछ पहलुओं को जांचना चाहती हूं। किशोरावस्था में पढ़ी हुई विनोबाजी की एक स्मृति याद आती है। स्वतंत्रता पाए हुए अभी आधा दशक भी पूरा नहीं हुआ था। विनोबाजी ने भूदान यज्ञ चलाया। बड़े जमींदारों को प्रोत्साहित किया कि वे अपनी जमीन भूमिहीनों के लिए दें। उन्हें बिहार, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश में काफी यश मिला। यज्ञ अभी चल रहा था। भूमि का बंटवारा शुरू हुआ था। एक अभूतपूर्व घटना घट रही थी।
नेहरूजी ने बुलावा भेजा विनोबाजी से कहलवाया 'आप सरकार से बाहर रहकर इतना इच्छा काम कर रहे हैं- सोचिए सरकारी ताकत भी इस अच्छे काम के पीछे लग जाए तो यह काम कई गुना अधिकता से हो सकता है, अत: आप सरकार में आ जाइए- कृषि मंत्री का पद स्वीकार करिए और सरकार की प्रतिभा को भी चमकाइए।'
विनोबा ने उत्तर दिया- 'नहीं आऊंगा। हमारे देश ने लोकतंत्र को अपनाया है- राजतंत्र को नहीं। लोकतंत्र की आवश्यकता है कि इसमें लोगों को लगना चाहिए कि उनके अच्छे इरादे और अच्छे कामों से समाज का विकास हो सकता है- हर विकास के लिए सरकार की या सरकारी सत्ता की आवश्यकता नहीं है। यदि लोगों को लगा कि कोई विकास सरकार के बिना नहीं हो सकता है, तो यह लोकतंत्र के लिए मनोबल घटाने वाली बात होगी। लोकतंत्र में लोगों के विश्वास को बचाने के लिए आवश्यक है कि मैं यह काम सरकार से बाहर रहकर करूं-भले ही छोटे स्तर पर होता हो।'
1952 और 2012- साठ वर्ष बीत गए। इस दौरान धीरे-धीरे सामाजिक कार्यों की व्याप्ति और पहुंच और दृष्टि व दायरा-सभी सिमटते चले गए हैं। अब यह स्थिति आ गई है कि कोई अच्छा काम करना हो तो लगता है कि इसके लिए सरकार में सत्ता हासिल किए बिना बात नहीं बनेगी। 
और सत्ता का खेल भी अब खेल नहीं रहा, बल्कि एक मारो या मरो वाला मुकाम सा बन गया है। सत्ता में आने के लिए पहले चाहिए पैसा। फिर चाहिए बडी संख्या- उसके लिए बड़ा संगठन-उसके लिए बड़ा पैसा। यह केवल एक आवश्यकता है। दूसरी आवश्यकता है कि लोगों में अलगाव, आवेश, आक्रोश भर दिया जाए और दावा किया जाए कि हम ही हैं- तारनहार। आज प्रत्येक पार्टी किसी न किसी भौगोलिक हिस्से में इस प्रकार के अलगाव को प्रोत्साहन देती हुई दिखाई देगी। इसी के लिए बाहुबली भी पालने पड़ेंगे। तीसरी आवश्यकता है कि दूसरों के अच्छे कामों का विरोध करो, उसे सफल न होने दो, क्योंकि दूसरे 'अच्छे' दिखे तो सत्ता में अपने लिए स्पर्धा खड़ी हो जाती है। चौथी आवश्यकता है समय की इतने कम समय में बडी सत्ता नहीं मिल सकती। फिर गठबंधन- जोड़-घटाव, लेन-देन का व्यापार शुरू हो जाता है।
इन चारों आवश्यकताओं को ध्यान रखने में किसी भी राजकीय पक्ष को इतना समय लगाना पड़ता है कि इनकी पूर्ति ही साध्य बन जाती है। फिर वह लक्ष्य कोसों दूर चला जाता है जिसे 'साधनों के लिए' सत्ता को साधन बनाने का फैसला लिया गया था। टीम अन्ना के निर्णय से लोगों में यदि क्रोध, उपहास या हतबलता की भावना आई है उसका कारण भी यही विवंचना है, भले ही इसे इतनी स्पष्टता से अभी नहीं देखा जा रहा हो।
अब दो प्रश्न पूछे जा सकते हैं- क्या कभी भी किसी नए व्यक्ति का राजनीति में प्रवेश हो ही नही सकता? ऐसा नहीं है- यदि किसी की सामाजिक कार्य की प्रतिमा बन गई हो तो वह चुनाव में जीतकर आ सकते हैं- इसका एक उदाहरण है गुजरात के एक पुलिस कमिश्नर (शायद सूरत के) जो नौकरी छोड़कर राजनीति में उतरे, जीते भी। लेकिन आज वे कहां हैं? या फिर आंध्र में हाली चुनाव में एक सीट जीतने वाला प्रजातंत्र पक्ष जो अब कांग्रेस में विलीन हो गया है। इसलिए यदि टीम अन्ना ने राजकीय पक्ष की स्थापना का निर्णय लिया हो तो लोग पहले उसके उम्मीदवारों का सामाजिक कार्य पूछेंगे। आज अन्ना हजारे को छोड़ किसी और सदस्य का सामाजिक कार्य क्या है? वह कहीं दिखाई नहीं देता तब तक चुनाव लडने का सपना कोई खास सफलता नहीं देने वाला।
एक दूसरा प्रश्न भी पूछा जा सकता है यदि लोकतंत्र में सत्ता पाने के लिए उन चार आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ता है तो कई अन्य राष्ट्रों में यही लोकतंत्र प्रणाली क्यों विकास-गंगा बन पाई। उदाहरण स्वरूप यदि यूरोपीय देशों को देखें तो लगता है कि वहां लोकतंत्र सशक्त है और विकास का रास्ता प्रशस्त कर रहा है। फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं तो इसका भी कारण है उन नागरिकों की सार्थक समाज कार्य करने की क्षमता। इसका पाठ वहां विद्यार्थी दशा से ही आरंभ होता है जबकि अपने यहां छात्र-संगठन भी भ्रष्ट राजनीति में लिप्त हो जाते हैं। मैं मानती हूं कि राजनीति में घुसकर सत्ता पाने का प्रयास एक शार्टकट की तरह है। जबकि सामाजिक काम के रास्ते अपना साध्य पाने के लिए एक लम्बा सफर तय करना पड़ता है। अत: किसी भी टीम को यह लगना स्वाभाविक है कि शॉर्टकट का रास्ता लिया जाए। लेकिन मुझे नहीं लगता कि ठोस सामाजिक कार्य के बगैर वह मंजिल तक पहुंचाएगा।
टीम अन्ना राजनीति में असफल होती है तो यह पूरे देश के लिए दुखद घटना होगी क्योंकि भ्रष्टाचार हटने का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखता। लेकिन उनकी सफलता का रास्ता हजारों-लाखों के छोटे- बड़े सामाजिक कार्यों के पड़ाव से ही गुजरना है शॉर्टकट से चिरंतन कुछ भी हासिल नहीं होगा।
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