इस ढीली दंड प्रक्रिया को बदलिए
नभाटा दिल्ली, जनवरी 2000
नौ जनवरी, १९९९ की रात को भुवनेश्रवर-बारंग-कटक मार्ग पर श्रीमती अंजना मिश्र के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। इस धटना के दो चश्मदीद गवाह भी थे, जिनमें से एक अंजना के साथी सुतनु और दूसरा टैक्सी ड्राइवर राऊत थे। इन दोनो ने भी अपने बयान पुलिस को दिए जिनमे इस आरोप की पुष्टि की गई है। व्यक्तियों के नाम भी पुलिस ने जान लिये है और ११जनवरी, एक आरोपी साहू पकड़ा भी जा चुका है। साहू ने पुलिस के समक्ष अपराध स्वीकार भी कर लिया था और उस जगह की पहचान भी कर ली जहां बलात्कार किया गया था। इसी जगह की पहचान अंजना के दो गवाहों ने भी कर ली है। पुलिस को मेडिकल रिर्पोट भी मिल गई है। यह रिर्पोट प्राथमिक रिर्पोट है और बेहद अपर्याप्त रुप से को ----- करते है। अब सवाल यह है कि जब इस जघन्य रिर्पोट पुलिस में लिखी जा चुकी है और कम से कम एक अपराधी ने अपराध भी मान लिया है और गवाह तथा अन्य सबूत भी पुलिस के पास है। एक गंभीर सवाल यह उठता है कि भारत की शिक्षित व महिलाओं का क्या करते बनता है? हम समझ सकते है जब अंजना जैसी कोई धटना हो रही है या जब तक कोई भी अपराधी मौजूद है तब तक देश की कोई महिला इस तरह के खतरे से खाली नही है। क्या यह समझने की जिम्मेदारी भी हमारी नहीं कि जब तक बलात्कार करते वाले हर अपराधी को तत्काल और तत्परता से सजा नही दी जाती तब तक समाज मे ऐसे ही और अपराध अधिकाधिक होते रहेगे? और इस उलझन की जिम्मेदारी भी हमारी ही है कि अपराधी को दंड मिलने में जितनी देर हो रही है उतना ही हमारा खतरा बढ़ रहा है। मेरे विचार से बारंग आसपास के गाँवों की महिलाएं भी जानती और समझती होगी कि जब साहू और उसके अन्य दो साथी (जो बारंग के ही निवासी है) खुले रहेगे या जमानत पर रिहा होते रहेगे तब तक उन महिलाओं के लिए भी खतरा शुरु हो जाता है जैस अंजना मिश्रा के साथ हुआ।
इन सारी बातों का विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि आज की ---- में साहू के सारे अपराधों की जांच या छानबीन करना उतना आवश्यक नही है जितना कि साहू के जो भी अपराध आज न्यायालय मे ---- जा सकते है, उन पर तत्काल कार्यवाई हो और कम से कम ऐसे अपराधों के लिए उसे तत्परता से सजा भी मिले। अंजना ने आरोप ---- घटना सामान्य बलात्कार को न होकर सामूहिक बलात्कार को --- पीछे भूतपूर्व एडवोकेट जनरल जैसे उच्चतम अधिकारियों का --- है ओर इस षडयत्रं मे उड़ीसा के मुख्यमंत्री भी शामिल है। उधर --- सरकार ने भी यह घोषणा कर दी है कि इस सम्पूर्ण अपराध को और इस आरोप की न्यायिक जांच की जाएगी। फिर भी मै यह दावे के साथ कहना चाहती हूं कि आज की तारीख मे हमारी प्राथमिकता सम्पूर्ण की नही होनी चाहिए। हमारी प्राथमिकता वहां होनी चाहिए जो हम और आप अभी तत्काल सुनवाई के लिए कोर्ट में दाखिल कर सकें, जो हम --- कर सके और जिनकी सजा दिलवा सकें। सजा का आरंभ होना आवश्यक है क्योंकि वही एक बात है जिसमें समाज एवं महिला वर्ग को कुछ आशा बंध सकती है कि आने वाले दिनों में अपराधी को खुलेआम अपराध का मौका नही मिला करेगा ।
एक बार उन आरोपो को देखें जो अंजना ने लगाए है। सबसे पहला आरोप यह है कि साहू एवं अन्य दो व्यक्तियों ने, जिनकी पहचान पुलिस को ------ उसके साथ चार से छह धंटे तक रिवाल्वर को नोक पर बलात्कार किया। उसका दूसरा आरोप यह है कि इस षडयन्त्र में उड़ीसा के भूतपूर्व एडवोकेट इन्द्रजीत राय एवं भूतपूर्व मुख्यमंत्री पटनायक का भी हाथ है। उसका तीसरा आरोप यह है कि इस पूरे मामले में उडीसा पुलिस का रवैया अत्यन्त अमवंदनशील है। एक अपरोध स्पष्ट है कि साहू और उसके साथी बिना लाइसेंस के रिवाल्वर लिये धूम रहे थे और यह रिवाल्वर भी उनके पास नाजायज तरीके से ही पहुंचा होगा। इसी रिवाल्वर से उन्होंने अंजना और सुतनु को जान से मारने की धमकी दी जिसके कारण अंजना के साथ बलात्कार संभव हुआ। इस प्रकार हम देखते है कि कम से कम तीन अपराध ऐसे है जो साहू ने कबूल कर लिये है और जो
अन्य गवाहों के साक्ष्य एवं पुष्टि के साथ कोर्ट मे खीचे जा सकते है। क. अंजना पर बलात्कार जो कि भारतीय दंड संहिता की धारा ३७६(१) के अंतर्गत एक अपराध है। ख. बगैर लाइसेंस के रिवाल्वर रखना जो कि आर्म्म एक्ट को धारा २५ के अंतर्गत अपराध है। ग. अंजना और उसके साथियों को रिवाल्वर दिखाकर मारने की धमकी देना जो भारतीय दंड संहिता की धारा ५०६ के अंतर्गत अपराध है वह है सामूहिक बलात्कार का अपराध जो भारतीय दंड संहिता की धारा ३७६ (२) के अंतर्गत दंडनीय है और उससे भी बड़ा अपराध का मामला एक षडयत्रं का है।
सवाल यह उठता है कि साहू को पहले तीन अपराधों के अंतर्गत तत्परता से सजा क्यों नहीं हो रही है जबकि अपराध को इतने दिन गुजर चुके है। गौर करने की बात यह है कि हमारी अपराध प्रक्रिया संहिता
(क्रिमेनल प्रोसेजन कोड १९७३) कही भी यह नही कहता कि हम न्यायिक कार्यवाई करने एवं दंड दिलवाने मे देर करे। उलट अपराध प्रक्रिया संहिता तो यह कहता है कि हर अपराध की जांच और न्यायिक प्रक्रिया और दंड की कार्यवाइ छह महीने के अन्दर ही पूरी होनी चाहिए। फिर भी हमारे देश की यह आदत बन चुकी है कि हम हर जांच बड़ी सुस्त और शिथिल गति से करते है। यह सुस्त गति न केवल हमारी पुलिस जांच में देखी जाती है बल्कि हमारी सार्थक प्रक्रिया और सरकार के अन्य विभागों में भी सर्वव्याप्त है। अंजना के केस से तो इस देरी या सुस्ती का एक सरकारमान्य कारण यह भी कहा जा सकता है कि पुलिस और न्यायिक जांच के द्वारा सरकार षडयंत्र तक के सारे मामलो की समग्र जांच करवाना चाहती है और समग्रता के कारणों के पीछे उन अपराधों का दुलंक्षित किया जा सकता है जो उस समग्रता का एक अंश है - भले ही वे अपराध कबूल क्यों न कर लिये गए हो। यहां मुझे एक कहावत याद आती है कि 'आधी छोड़ पूरी को धावे आधी मिले न पूरी पावे'। समग्रता के पीछे पड़कर आशिक किन्तु सहजता से सिद्ध होने वाले अपराध को आगे न चलाने के चक्रव्यूह में उड़ीसा पुलिस उलझकर रह गई है। यद्यपि यह मानना पड़ेगा कि केस को सही विधानों के अंतर्गत रजिस्टर कराने मे और छानबीन का सिलसिला बनाने में उन्होंने काफी तत्परता से काम किया। क्या इस चक्रव्यूह को बरकरार रखकर हम सारे अपराध जगत को खुशी का संदेशा नहीं दे रहे है कि भाई तुम तो अपराध करते चलो और हम तुम्हारा तब तक कुछ नही बिगाड़ेगे जब तक हम तुम्हारे सारे अपराधों की समग्र जांच पूरी न कर पाएं। और कौन कह सकता है कि पूरी और समग्र जांच में कितनी देर लग सकती है।
इस देश में कानून का सम्मान करने वाले जितने भी नागरिक है और महिला चेतन के लिए काम करने वाली जितनी भी संसथायें है, उनके आगे आने का समय आ गया है क्या वाकई यह सही है कि साहू के पहले तीन अपराधों की आज और तत्काल सुनवाई आरंभ कर देने से क्योकर समग्र जांच की न्यायिक प्रक्रिया मे बाधा पड़ सकती है? समग्र जांच की आड़ में छिप सकने का फायदा हम साहू या उस जैसे अपराधों को क्यों दे जबकि उसके छोटे अपराधों की सजा तो उसे तत्परता से दी जा सकती है। यदि कोई बाधा भी हो तो हमें उस बाधा को दूर करके तत्काल दंड प्रक्रिया का रास्ता ढूंढना पड़ेगा। यदि हम ऐसा नही कर पाते तो हमारे अपने और हमारे समाज के अस्तित्व को ही इससे खतरा है - अपराधों को कोई खतरा नही।
यहां जलगांव सैक्स स्कैडल में उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत है। मुंबई उच्च न्यायालय ने यह कहा कि बलात्कार की शिकार महिलाओं ने सेशन जज के सम्मुख जो बयान दिया, वह उन्हें अपर्याप्त लगा और ठीक से प्रभावित नही कर पाया। अन्य कारणों के साथ इस कारण को भी बताते हुए उच्च न्यायालय ने सैक्स स्कैडल के आरोपी नफजल को बरी कर दिया हालांकि सेशन को आरोप को सही पाया था और उसे सात साल की सजा भी सुनाई थी। हम सोचे कि इस केस को महिलाओं का साक्ष्य प्रभावित क्यों नही कर सका और इस अपूर्णता में सुनवाई की देरी का कारण कितना महत्वपूर्ण जलगांव सैक्स स्कैडल की धटना १९९३-९४ के बीच हुई जबकि ये कोर्ट के सम्मुख पेश होने तक वर्ष
१९९५-९६ आ चुका था। जरा सोचो कि हम क्या चाहते है कि बलात्कार की शिकार कोई भी महिला अपने जख्मों को इतने लम्बें समय तक ढोती चले ताकि साक्ष्य देने के समय प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर सके?
यहां हमें यह नही भूलना चाहिए कि जलगाँव के केस की सुनवाई जितनी तत्परता से हुई, वह भी एक अपवाद है। फिर भी सुनवाई मे दो का समय व्यतीत हो गया। बलात्कार के कई केसों में तो सुनवाई के पाँच से इस साल तक लग जाते है। क्या यह उचित है कि हम बलात्कार शिकार महिलाओं से कहे कि वे अपने सारे दर्द और जख्मों को दो से ---साल तक ढोती फिरे ताकि साक्ष्य के समय कोर्ट को प्रभावित कर सकें इसके बजाए क्या यह उचित नहीं कि हम उसके लिए ऐसा वातावरण तैयार करे जिसमें वह अपने दुख दर्द और जख्मों को भूल पाएं और जिन्दगी फिर एक नई आशा के साथ शुरू कर सके? क्या यह उचित नही कि उन्हें अपनी नारकीय यातनाओं को जल्दी व्यक्त करने का मौका दें तो उन्हें अपनी वेदना और अपनी बदले की भावना को नपुंसकता केस सालोसाल न ढोना पड़े कि समाज और न्याय प्रक्रिया कब उन पर उदार हो और उन्हें अपना बयान देने का मौका मिले? क्या यह पूर्णतया स्वाभाविक नही कि दो से पाँच वर्षो के बाद जब किसी बलात्कार की शिकार महिला को साक्ष्य देने को कहा जाता है और पूरी घटना की वेदना को दुबारा जीने के लिए आग्रहपूर्वक कहा जाता है और उस प्रक्रिया में उसकी छीछालेदर करने कोई उपाय बाकी नहीं छोड़ा जाता है, तो उनके सामने केवल यही उद्येश्य होता है कि किसी तरह वह जल्दी से जल्दी अपने साक्ष्य को पूरा कर ले। अदालत के तनाव भरे वातावरण से दूर भागकर खूली हवा में सांस ले सके। ऐसी हालत में यदि उसके साक्ष्य यथायोग्य तरीके से प्रभावित न कर सके और अपराधी मुक्त हो जाए तो क्या अपराधी से खतरा केवल महिला को है या सारे समाज को है? जलगांव के उदाहरण के बाद समाज को यह विचार करना चाहिए।
दुबारा अंजना के केस पर आते हुए हम एक बात और समझ ले भारतीय अपराध प्रक्रिया महिला सी आर पी सी कहीं भी यह नही --- कि जब बलात्कार और सामूहिक बलात्कार जैसे दो अलग अलग अपराध किए जाते हो तो दोनों की सुनवाई इकट्ठी अंतराल के लिए दी जाए। संहिता तो यही कहती है दोनों अपराध अलग अलग अन्तराल मे भुगतने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन हमारी न्यायिक प्रक्रिया में अपराधी को उदारता से देखने का एक रिवाज बन चुका है, जिसके कारण अपराधों के सारे अपराधों को सजा एक समय के अन्तराल में दिए जाने का रिवाज सा चल पड़ा। सौ, सवा वर्ष पहले जब पहली बार संहिता लिखी गई थी, तो उस जमाने का काम, छह महीने के अन्दर पूरे कर लिये जाते थे। तब शायद यह उचित था कि सारे अपराधों की जांच इकट्ठी की जाए और सुनवाई भी इकट्ठी हो तो कोर्ट का समय दो बार नष्ट न हो । पर अब तो ऐसी हालत नहीं है इसलिए आज हमें इस परिपाटी को बदलना होगा । आज की --- आवश्यकता यह है कि जो भी अपराध तत्परता से सिद्ध हो पाना संभव हो उसकी कानूनी प्रक्रिया हम तत्परता से शुरू कर दें ताकि समाज के लिये कोई उदाहरण तो प्रस्तुत हो कि हम भी बलात्कार के शिकार महिलाओं को तत्परता से न्याय दिला सकते हैं और समाज को भी तत्परता से अपराध के भय से मुक्त कर सकते हैं । न्यायिक प्रक्रिया आरभं करने को तत्पर मांग हम केवल अंजना के लिये नहीं मांगते, वरन् हमारे समाज की इसी तत्परता में टिकी है। आइए, अपने गणतत्रं के पचासवें वर्ष में अपने आप को एक कार्य तत्पर दंड संहिता और अपराध प्रक्रिया संहिता उपहार दें।
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शनिवार, 31 अक्तूबर 2009
बुधवार, 21 अक्तूबर 2009
04 व्यवस्था की एक और विफलता
व्यवस्था की एक और विफलता
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
आज से पचास वर्ष पहले की बात है, तब देश के हर कोने से हर समझदार व्यक्ति स्वतंत्रता की लडाई मे अपना हाथ बँटा रहा था | ब्रिटीश सरकार देशवासियोंकी किसी दलील, किसी अपील को सुनने से इनकार कर रही थी | तब मुंबई में गावलिया, टैंक मैदान पर एक विशाल सभा का आयोजन हुआ | वहाँ नेताओं ने दो संदेश दिये, देशवासियों को संदेश दिया - "करो या मरो" और ब्रिटिश सरकार से कहा - "भारत छोडो" | सारा देश इन दो नारों से गूंज उठा | यह नारा किसी पार्टी का नहीं था बल्कि, उन सभी के दिलों की आवाज थी जो आजादी के दीवाने थे, मातृभूमि के लिये सिर पर कफन बांध कर चलते थे और जीवन से अपने लिये सत्ता, संपत्ति, यश, किर्ती, सम्मान या ऐसी किसी बात की मांग नहीं करते थे, वे दिन थे अगस्त 1942 के |
फिर भारत स्वतंत्र हुआ, उस घटना को पचास वर्ष पूरे हुए | यादगार स्वरूप फिर से मुंबई के उसी अगस्त क्रांति मैदान पर समारोह का आयोजन हुआ | देशवासियों को याद दिलाने के लिये कि वे दिन कैसे थे| संकट के, त्याग के, संकल्प पूर्ति के, वे देश के लिए मर मिटने की तमन्ना वाले लोगों के दिन थे | उन दिनों की और उन लोगों की याद दिलाने के लिये समारोह का आयोजन हुआ |
मुख्य समारोह 9 अगस्त को अगस्त क्रांति मैदान पर होना था, उसमे देश के प्रधानमंत्री आने वाले थे | उसके पहले 8 अगस्त को एक समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को श्रीमती मृणाल गोरे के साथ देखा गया | विषय था उन दैसी कई ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं का सम्मान व गौरव | इस समारोह के फोटो 9 अगस्त को कई अखबारों के पहले पन्ने पर छपे | लोगों ने उसे देखा, पुलिस वालों ने भी देखा ही होगा | उसी 9 अगस्त को प्रधानमंत्री का कार्यक्रम भी था | कार्यक्रम से पहले पुलिस ने कुछ महिलाओं पर लाठी चलाई जिसमें वही मृणाल गोरे भी थीं जिन्हें एक दिन पहले सरकार सम्मानित कर चुकी थी | महिलाओं का अपराध यही था कि वे एक मूक मोर्चा बनाकर अगस्त क्रांति मैदान में जाकर 1942 के शहीदों को मूक श्रध्दांजलि अर्पित करना चाहती थी, जो वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर वर्ष से करती आयी हैं |
वाह साहब, जिन क्रांतिकारियों की याद को उजागर करने प्रधानमंत्री आ रहे हों, उन्ही क्रांतिकारियों को श्रध्दांजलि देने के लिये जानेवालों पर लाठी चलाई गई| मोर्चे में प्रमिला जी दंडवते भी थीं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ऐसे कई मोर्चो में भाग लिया होगा और विदेशी सरकार के सिपाहियों से लाठियाँ खाई होंगी | आज सबने उन्ही दिनों की याद में फिर अपने ही पुलिस ज्यादतियाँ सहीं | पुलिस की दृष्टि में उनका अपराध यही था कि वे ऐसी जगह जाना चाहती थीं और वर्षों से जा भी रही थीं, जहाँ प्रधानमंत्री आनेवाले थे और पुलिस के लिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था का प्रश्न सर्वोपरि था | श्रीमती मृणाल जी ने उन्हें समझाया कि प्रधानमंत्री का आगमन समय बहुत दूर है, उनकी मुख्यमंत्री से इस विषय पर बातचीत हो चुकी है और मुख्यमंत्री ने उन्हें मुख्य कार्यक्रम से पहले अपने मोर्चे के साथ जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की पूर्वानुमति दे दी है | लेकिन नही साहब, नही| आखिर उन्हें लाठियाँ खानी ही पडीं |
पुलिस की दृष्टी से शायद यह व्यवहार सर्वथा समर्थनीय हो - शायद नहीं | यह जानकारी जनता के लिये बडी लाभप्रद सिध्द होगी कि पुलिस के महकमे से कौन इस व्यवहार को अशोभनीय मानता है और क्यों ? यद्दापि, पुलिस के किसी वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया अखबार में पढने को नही मिली, फिर भी, अनुमान है कि नब्बे प्रतिशत पुलिस इस घटना का समर्थन ही करेगी| आखिर क्यों? तो उत्तर मिलेगा कि साहब पुलिस ऑर्गेनाइजेशन एक ऐसा विभाग है जहाँ वरिष्ठ की आज्ञापालन ही सर्वोपरि माना जाता है | ऐसा न हो तो वहाँ तहलका मच जाये, फिर प्रधानमंत्री की सुरक्षा ऐसा मामला है जहां रिस्क नही लिया जा सकता, इत्यादि |
लेकिन मेरी निगाह में पुलिस का व्यवहार हमारी कमजोर पडती शासकीय व्यवस्था का ही प्रतीक है और उसी शासकीय अव्यवस्था से उत्पन्न भी है | अच्छा शासन कैसा हो ? इस संबंध में महाराष्ट्र के संत राजनीतिज्ञ और शिवाजी के गुरु माने जानेवाले कवि रामदास का एक दोहा है | "जब तुम देखो कि बडे से बडा जनसमुदाय बिना रुकावट के चल रहा है तो वह शासन व्यवस्था अच्छी है, जब जनसमुदाय जगह जगह अटक रहा हो, तो समझो वह शासन अच्छा नही है" -- जनांचा प्रवाहो चालला, म्हणिजे कार्यभाग जाहला, जन ठायी - ठायी तुंबला म्हणिजे खोटे !"
हम भी अपनी शासन व्यवस्था में जगह जगह रुकावटें निर्माण कर रहे हैं | हमारे लिए आज नियम और प्रोसीजर सर्वोपरि बन गया है न कि वह व्यक्ति जिसे उस नियम से परेशानी होनेवाली है | अब नियम कहता है कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम स्थल पर किसी को नहीं आने दिया जाये, तो यह नियम सब पर लागू हो गया, भले ही वह व्यक्ति ऐसा क्यों न हो जिसकी प्रशंसा वही प्रधानमंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे हों| दु:ख इस बात का है कि नियम में बद्ध इस शासन व्यवस्था में प्रमिलाजी जैसी स्वतंत्रता सेनानी पर यह शक किया जा सकता है कि उनके कारण प्रधानमंत्री को खतरा होगा | जब कि प्रधानमंत्री खुद एक स्वतंत्रता सैनिक रह चुके हैं और उन जैसे स्वतंत्रता सैनिकों की यादें उजागर कर उन्हें सम्मानित करने के लिए आ रहे हैं, तो नियम के साथ साथ यह औचित्य-भान हम कब सीखेंगे ?
आज सोचने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं| मुख्यमंत्री अवश्य ही मृणाल गोरे और अन्य सामान्य व्यक्ति के बीच का अंतर पहचानते है तभी मृणाल गोरे को घटनास्थल पर पहले जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की अनुमति दी | फिर यह समझदारी कि मृणाल गोरे और अन्य व्यक्तियों में अंतर है, यह पुलिस के कनिष्ठ अधिकारियों या कांस्टेबलों के पास क्यों नहीं हैं ? उन्हे क्यों नही सिखाया जाता कि व्यक्ति - व्यक्ति में क्या और कैसे फर्क किया जाता है? पुलिस को केवल यही बताया गया था कि जो भी आदमी दिखे उसे रोको| चाहे, किसी तरीके से| यही कमजोरी शासन के अन्य हिस्सों में भी है | सामान्य जनों के प्रति आदर दिखाना, उनकी बात की तहमें जाने का प्रयास करना इत्यादि सद्गुण हैं जो सत्ता के वरिष्ठ अधिकारियों के पास भले ही हों लेकिन छोटे अधिकारियों और कर्मचारियोंके पास नही हैं | क्यों कि हाँ या ना कहने का अधिकार वरिष्ठ अधिकारी अपने पास रखना चाहते हैं | मृणाल गोरे के कार्य को पहचानकर उन्हें घटनास्थल पर जाने की अनुमति मुख्यमंत्री ने तो दे दी, लेकिन यही रवैया, यही डिस्क्रीशन यदि कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित कोई डी.सी.पी. दिखाये तो उसे सराहा नही जायेगा बल्कि, शायद डाँट ही पडेगी | क्योंकि शासन मे यह भी मान लिया गया है कि आपके निचले अफसर मे डिस्क्रीशन देने की योग्यता नही है न तो उनकी योग्यता बढाने का कोई प्रयत्न किया जाता है और न उन्हें कोई डिस्क्रीशन दिया जाना चाहिये | परिणाम यह होता है कि वे भी डिस्क्रीशन का रिस्क नहीं लेना चाहते| हालाँकि, डी.सी.पी. का पद एक बहुत वरिष्ठ पद है, फिर भी 9 अगस्त की घटना में किसी डी.सी.पी. से यदि पूर्वानुमति माँगी भी जाती तो वह नहीं देता | शायद सी.पी. या आई.जी. भी नहीं देते क्योंकि वे भी नहीं जानते कि उनके वरिष्ठ इसे किस निगाह से देखेंगे| हारकर मृणाल गोरे या किसी भी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पास ही जाना पडेगा |
इस घटना का एक पहलू और भी है | यदि मुख्यमंत्री ने पूर्वानुमति दे दी थी, तो यह बात नीचे तक क्यों नहीं पहुँची, क्यों कार्यक्रम स्थल की ड्यूटी पर तैनात पुलिस काँस्टेबल को इसकी सूचना नहीं थी ? फिर जब मृणाल जी ने उन्हें बताया तब पुलिस के पास ऐसे उपाय क्यों नहीं थे जिसके जरिये तत्काल ऊपर तक संपर्क कर इसके सच झूठ की पुष्टि की जा सके ? इसलिये की कनिष्ठ कर्मचारी ऐसी किसी जाँच को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते - वे तब तक आपको काई सुविधा नही देंगे जब तक आप स्वयं प्रयत्न कर वरिष्ठों के आदेश उनके पास नही पहुँचाते | वरिष्ठ खुद भी इसे अपनी जिम्मदारी नही मानते | शासन की एक तीसरी अव्यवस्था भी यहां उभरकर सामने आती है | मान लिया जाये कि मामला चूँकि प्रधानमंत्री की सुरक्षा का था इसलिए पुलिस ने मृणाल गोरे और प्रमिला दंडवते जैसी महिलाओं को भी रोकना उचित समझा | यह भी मान लिया जाये कि उत्सव की गडबडी के कारण न तो मुख्यमंत्री की अनुमति की सूचना काँस्टेबल तक पहुंच सकी और न क्रांति मैदान का कोई पुलिसकर्मी मृणाल जी के बताने पर भी पुष्टि नही करवा पाया या मुख्यमंत्री से संपर्क नहीं कर पाया | चलिए, उत्सव की गडबडी में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएँ हो जाती हैं | लेकिन जिस तरीके से पुलिस उन महिलाओं से पेश आयी उसका क्या समर्थन हो सकता है ? कम से कम पुलिसकर्मी अच्छा व्यवहार तो दिखा सकते थे | लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो यह भी असंभव है | जिसके पास लाठी है, शक्ति है, और लाठी चलाने का अधिकार है, उसे जबतक अच्छे बर्ताव का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और अच्छे बर्ताव का डिस्क्रीशन नही दिया जाता तब तक वह अपने अधिकार का प्रदर्शन बुराई से ही करेगा |
मुख्यमंत्री ने घटनास्थल पर जाकर और महिलाओं से माफी माँग कर अपना बडप्पन ही दुबारा साबित कर दिया | लेकिन जब तक वे खुद फैसला करके यह कोशिश नहीं करते कि यही बडप्पन उनके निचले अधिकारियों में भी आये, तब तक ऐसी अशोभनीय घटनाएँ घटती ही रहेंगी |
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दै. हमारा महानगर में प्रकाशित, अगस्त 1997
- लीना मेहेंदळे, भा.प्र.से.
आज से पचास वर्ष पहले की बात है, तब देश के हर कोने से हर समझदार व्यक्ति स्वतंत्रता की लडाई मे अपना हाथ बँटा रहा था | ब्रिटीश सरकार देशवासियोंकी किसी दलील, किसी अपील को सुनने से इनकार कर रही थी | तब मुंबई में गावलिया, टैंक मैदान पर एक विशाल सभा का आयोजन हुआ | वहाँ नेताओं ने दो संदेश दिये, देशवासियों को संदेश दिया - "करो या मरो" और ब्रिटिश सरकार से कहा - "भारत छोडो" | सारा देश इन दो नारों से गूंज उठा | यह नारा किसी पार्टी का नहीं था बल्कि, उन सभी के दिलों की आवाज थी जो आजादी के दीवाने थे, मातृभूमि के लिये सिर पर कफन बांध कर चलते थे और जीवन से अपने लिये सत्ता, संपत्ति, यश, किर्ती, सम्मान या ऐसी किसी बात की मांग नहीं करते थे, वे दिन थे अगस्त 1942 के |
फिर भारत स्वतंत्र हुआ, उस घटना को पचास वर्ष पूरे हुए | यादगार स्वरूप फिर से मुंबई के उसी अगस्त क्रांति मैदान पर समारोह का आयोजन हुआ | देशवासियों को याद दिलाने के लिये कि वे दिन कैसे थे| संकट के, त्याग के, संकल्प पूर्ति के, वे देश के लिए मर मिटने की तमन्ना वाले लोगों के दिन थे | उन दिनों की और उन लोगों की याद दिलाने के लिये समारोह का आयोजन हुआ |
मुख्य समारोह 9 अगस्त को अगस्त क्रांति मैदान पर होना था, उसमे देश के प्रधानमंत्री आने वाले थे | उसके पहले 8 अगस्त को एक समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को श्रीमती मृणाल गोरे के साथ देखा गया | विषय था उन दैसी कई ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं का सम्मान व गौरव | इस समारोह के फोटो 9 अगस्त को कई अखबारों के पहले पन्ने पर छपे | लोगों ने उसे देखा, पुलिस वालों ने भी देखा ही होगा | उसी 9 अगस्त को प्रधानमंत्री का कार्यक्रम भी था | कार्यक्रम से पहले पुलिस ने कुछ महिलाओं पर लाठी चलाई जिसमें वही मृणाल गोरे भी थीं जिन्हें एक दिन पहले सरकार सम्मानित कर चुकी थी | महिलाओं का अपराध यही था कि वे एक मूक मोर्चा बनाकर अगस्त क्रांति मैदान में जाकर 1942 के शहीदों को मूक श्रध्दांजलि अर्पित करना चाहती थी, जो वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर वर्ष से करती आयी हैं |
वाह साहब, जिन क्रांतिकारियों की याद को उजागर करने प्रधानमंत्री आ रहे हों, उन्ही क्रांतिकारियों को श्रध्दांजलि देने के लिये जानेवालों पर लाठी चलाई गई| मोर्चे में प्रमिला जी दंडवते भी थीं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ऐसे कई मोर्चो में भाग लिया होगा और विदेशी सरकार के सिपाहियों से लाठियाँ खाई होंगी | आज सबने उन्ही दिनों की याद में फिर अपने ही पुलिस ज्यादतियाँ सहीं | पुलिस की दृष्टि में उनका अपराध यही था कि वे ऐसी जगह जाना चाहती थीं और वर्षों से जा भी रही थीं, जहाँ प्रधानमंत्री आनेवाले थे और पुलिस के लिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था का प्रश्न सर्वोपरि था | श्रीमती मृणाल जी ने उन्हें समझाया कि प्रधानमंत्री का आगमन समय बहुत दूर है, उनकी मुख्यमंत्री से इस विषय पर बातचीत हो चुकी है और मुख्यमंत्री ने उन्हें मुख्य कार्यक्रम से पहले अपने मोर्चे के साथ जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की पूर्वानुमति दे दी है | लेकिन नही साहब, नही| आखिर उन्हें लाठियाँ खानी ही पडीं |
पुलिस की दृष्टी से शायद यह व्यवहार सर्वथा समर्थनीय हो - शायद नहीं | यह जानकारी जनता के लिये बडी लाभप्रद सिध्द होगी कि पुलिस के महकमे से कौन इस व्यवहार को अशोभनीय मानता है और क्यों ? यद्दापि, पुलिस के किसी वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया अखबार में पढने को नही मिली, फिर भी, अनुमान है कि नब्बे प्रतिशत पुलिस इस घटना का समर्थन ही करेगी| आखिर क्यों? तो उत्तर मिलेगा कि साहब पुलिस ऑर्गेनाइजेशन एक ऐसा विभाग है जहाँ वरिष्ठ की आज्ञापालन ही सर्वोपरि माना जाता है | ऐसा न हो तो वहाँ तहलका मच जाये, फिर प्रधानमंत्री की सुरक्षा ऐसा मामला है जहां रिस्क नही लिया जा सकता, इत्यादि |
लेकिन मेरी निगाह में पुलिस का व्यवहार हमारी कमजोर पडती शासकीय व्यवस्था का ही प्रतीक है और उसी शासकीय अव्यवस्था से उत्पन्न भी है | अच्छा शासन कैसा हो ? इस संबंध में महाराष्ट्र के संत राजनीतिज्ञ और शिवाजी के गुरु माने जानेवाले कवि रामदास का एक दोहा है | "जब तुम देखो कि बडे से बडा जनसमुदाय बिना रुकावट के चल रहा है तो वह शासन व्यवस्था अच्छी है, जब जनसमुदाय जगह जगह अटक रहा हो, तो समझो वह शासन अच्छा नही है" -- जनांचा प्रवाहो चालला, म्हणिजे कार्यभाग जाहला, जन ठायी - ठायी तुंबला म्हणिजे खोटे !"
हम भी अपनी शासन व्यवस्था में जगह जगह रुकावटें निर्माण कर रहे हैं | हमारे लिए आज नियम और प्रोसीजर सर्वोपरि बन गया है न कि वह व्यक्ति जिसे उस नियम से परेशानी होनेवाली है | अब नियम कहता है कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम स्थल पर किसी को नहीं आने दिया जाये, तो यह नियम सब पर लागू हो गया, भले ही वह व्यक्ति ऐसा क्यों न हो जिसकी प्रशंसा वही प्रधानमंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे हों| दु:ख इस बात का है कि नियम में बद्ध इस शासन व्यवस्था में प्रमिलाजी जैसी स्वतंत्रता सेनानी पर यह शक किया जा सकता है कि उनके कारण प्रधानमंत्री को खतरा होगा | जब कि प्रधानमंत्री खुद एक स्वतंत्रता सैनिक रह चुके हैं और उन जैसे स्वतंत्रता सैनिकों की यादें उजागर कर उन्हें सम्मानित करने के लिए आ रहे हैं, तो नियम के साथ साथ यह औचित्य-भान हम कब सीखेंगे ?
आज सोचने की आवश्यकता है कि ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं| मुख्यमंत्री अवश्य ही मृणाल गोरे और अन्य सामान्य व्यक्ति के बीच का अंतर पहचानते है तभी मृणाल गोरे को घटनास्थल पर पहले जाकर श्रध्दांजलि अर्पित करने की अनुमति दी | फिर यह समझदारी कि मृणाल गोरे और अन्य व्यक्तियों में अंतर है, यह पुलिस के कनिष्ठ अधिकारियों या कांस्टेबलों के पास क्यों नहीं हैं ? उन्हे क्यों नही सिखाया जाता कि व्यक्ति - व्यक्ति में क्या और कैसे फर्क किया जाता है? पुलिस को केवल यही बताया गया था कि जो भी आदमी दिखे उसे रोको| चाहे, किसी तरीके से| यही कमजोरी शासन के अन्य हिस्सों में भी है | सामान्य जनों के प्रति आदर दिखाना, उनकी बात की तहमें जाने का प्रयास करना इत्यादि सद्गुण हैं जो सत्ता के वरिष्ठ अधिकारियों के पास भले ही हों लेकिन छोटे अधिकारियों और कर्मचारियोंके पास नही हैं | क्यों कि हाँ या ना कहने का अधिकार वरिष्ठ अधिकारी अपने पास रखना चाहते हैं | मृणाल गोरे के कार्य को पहचानकर उन्हें घटनास्थल पर जाने की अनुमति मुख्यमंत्री ने तो दे दी, लेकिन यही रवैया, यही डिस्क्रीशन यदि कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित कोई डी.सी.पी. दिखाये तो उसे सराहा नही जायेगा बल्कि, शायद डाँट ही पडेगी | क्योंकि शासन मे यह भी मान लिया गया है कि आपके निचले अफसर मे डिस्क्रीशन देने की योग्यता नही है न तो उनकी योग्यता बढाने का कोई प्रयत्न किया जाता है और न उन्हें कोई डिस्क्रीशन दिया जाना चाहिये | परिणाम यह होता है कि वे भी डिस्क्रीशन का रिस्क नहीं लेना चाहते| हालाँकि, डी.सी.पी. का पद एक बहुत वरिष्ठ पद है, फिर भी 9 अगस्त की घटना में किसी डी.सी.पी. से यदि पूर्वानुमति माँगी भी जाती तो वह नहीं देता | शायद सी.पी. या आई.जी. भी नहीं देते क्योंकि वे भी नहीं जानते कि उनके वरिष्ठ इसे किस निगाह से देखेंगे| हारकर मृणाल गोरे या किसी भी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पास ही जाना पडेगा |
इस घटना का एक पहलू और भी है | यदि मुख्यमंत्री ने पूर्वानुमति दे दी थी, तो यह बात नीचे तक क्यों नहीं पहुँची, क्यों कार्यक्रम स्थल की ड्यूटी पर तैनात पुलिस काँस्टेबल को इसकी सूचना नहीं थी ? फिर जब मृणाल जी ने उन्हें बताया तब पुलिस के पास ऐसे उपाय क्यों नहीं थे जिसके जरिये तत्काल ऊपर तक संपर्क कर इसके सच झूठ की पुष्टि की जा सके ? इसलिये की कनिष्ठ कर्मचारी ऐसी किसी जाँच को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते - वे तब तक आपको काई सुविधा नही देंगे जब तक आप स्वयं प्रयत्न कर वरिष्ठों के आदेश उनके पास नही पहुँचाते | वरिष्ठ खुद भी इसे अपनी जिम्मदारी नही मानते | शासन की एक तीसरी अव्यवस्था भी यहां उभरकर सामने आती है | मान लिया जाये कि मामला चूँकि प्रधानमंत्री की सुरक्षा का था इसलिए पुलिस ने मृणाल गोरे और प्रमिला दंडवते जैसी महिलाओं को भी रोकना उचित समझा | यह भी मान लिया जाये कि उत्सव की गडबडी के कारण न तो मुख्यमंत्री की अनुमति की सूचना काँस्टेबल तक पहुंच सकी और न क्रांति मैदान का कोई पुलिसकर्मी मृणाल जी के बताने पर भी पुष्टि नही करवा पाया या मुख्यमंत्री से संपर्क नहीं कर पाया | चलिए, उत्सव की गडबडी में ऐसी छोटी-मोटी घटनाएँ हो जाती हैं | लेकिन जिस तरीके से पुलिस उन महिलाओं से पेश आयी उसका क्या समर्थन हो सकता है ? कम से कम पुलिसकर्मी अच्छा व्यवहार तो दिखा सकते थे | लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो यह भी असंभव है | जिसके पास लाठी है, शक्ति है, और लाठी चलाने का अधिकार है, उसे जबतक अच्छे बर्ताव का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और अच्छे बर्ताव का डिस्क्रीशन नही दिया जाता तब तक वह अपने अधिकार का प्रदर्शन बुराई से ही करेगा |
मुख्यमंत्री ने घटनास्थल पर जाकर और महिलाओं से माफी माँग कर अपना बडप्पन ही दुबारा साबित कर दिया | लेकिन जब तक वे खुद फैसला करके यह कोशिश नहीं करते कि यही बडप्पन उनके निचले अधिकारियों में भी आये, तब तक ऐसी अशोभनीय घटनाएँ घटती ही रहेंगी |
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दै. हमारा महानगर में प्रकाशित, अगस्त 1997
गोनी दांडेकर
गोनी दांडेकर
समकालीन (हिंदी सागित्य अकादमी की मासिक पत्रिका) में प्रकाशित
गोनीदा महाराष्ट्र के सुपरिचित साहित्यकार थे। गोनीदा या गोपाल नीलकंठ दांडेकर की पहचान एक गहरी संवेदना रखने वाले जिजीवषु लेखक के रूप में है। करीब पैंतीस उपन्यासों के अलावा उन्होंने महाराष्ट्र के दुर्गों और किलों पर लिखा है, प्रवास वर्णन लिखे है और किशोर-साहित्य भी लिखा है।
गोनीदा के लेखन की कुछ खास विशेषताएँ हैं। केवल मनुष्य इन के लेखन के पात्र नहीं होते,बल्कि भूगोल, स्थल-काल और माहौल भी सशक्त पात्र बनकर सामने आते हैं। आप ललचा उठते हैं खुद चल कर वह स्थान देचाने के लिए जिस का वर्णन किया गया है। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे स्थल ही मुख्य नायक है। उदाहरणस्वरूप,मैं ने १९७५ में भाखढ़ा नांगल बाँध देखा था और कुछ ही समय बाद उन की रचना पढ़ी 'भगीरथ के पुत्र'! यह उन इंजीनियरों की विजय गाथा है जिन्होंने भाखड़ा नांगल बाँध बांधा था। याद रहे कि स्वतंत्र भारत में भारतीय लोगों के द्वारा बनाया गया यह पहला बांध था। पूरा एपन्यास पढ़ते हुए लग रहा था कि अभी वापस चल कर दुबारा भाखड़ा नांगल बांध देखूँ तो वह मुझ से बातें करने को तत्पर होगा। यही बात उन के अन्य उपन्यास जैत रे जैत,पडघवली,मृणमयी,माचीवरला बुधा,पवनाकाठचा धोंडी आदि में भी देखने को मिलती है। वे केवल स्थलों का बार-बार और बारीकी से विवरण नहीं देते बल्कि उस खिचांव का भी वर्णन करते हैं। जिस की ताकत से कथा के पात्र वहाँ खिंचे चले आते हैं।
पडघवली उपन्यास की नायिका ब्याह कर कोंकण प्रदेश के इस छोटे से गाँव में आती है और अपने सत्व के बलपर परिवार के और गाँव के भी कुछ दुर्जानों से अपनी न्याय की लड़ाई लड़ती है। लेकिन उस की लड़ाई में पडघवली गाँव की माटी भी शरीक है जिस से रोत उस का घर लीपा-पोता जाता है और जो उस के खेतों के, आगँन के धान-पौधों को अपना रस देती है। वह समुद्र भी उन का साथी बनता है जिस के पास वह अपना सुख-दुख बाँटने आती है। अंततः पडघवली का वह समाज भी उस की लड़ाई में उस के साथ उतर आता है जो साधारणतया दुर्जानों के विरूद्ध अकर्मण्यता बनाए रखने में ही अपनी उपलब्धि मानता है।
कम ही साहित्यिकों को यह सौभाग्य मिलता है कि उन की किताबें पढ़ कर पाठक पूछे कि भई यह व्यक्ति खुद कैसे बना! कैसा जीवन उस ने जिया होगा,क्या-क्या अनुभव कहाँ-कहाँ से गाँठ में जोड़े होंगे जो वह ऐसा लिख पाया। यही प्रयन गोनीदा के विषय में भी उभरता है।
उन का उपन्यास जैत रे जैत ही लिजिए जिस पर आगे चल कर एक पुरस्कृत फिल्म बनी। सहाद्रि पर्वत की विशाल दर्रा-कंदराओं के अंदर बसे ठाकर आदिवासियों की जीवनी पर यह उपन्यास है। चरित नायक एक ढोल बजाने वाला ठाकर है। उस की प्रतिभा का वर्ण्न देखिए। 'ढोल का घनगंभीर नाद अब पहाड़ियों से टकराने लगा। ढोल एक अलग ही चलन से अलग-अलग गतियों से चलने लगा। कभी वह सिर पर लकड़ियों का बोझ उठाए बाजार में बेचने जाती ठाकर युवती की चाल से चलता तो कभी मोर के नाचने की। कभीयों जैसे आकाश में बादल गरज रहे हों और पूरी छाती में थरथराहट भर देता, तो कभी सावन की रिमझिम फुहार की गति, जो शरीर को हौले से भिगोती चली जाए। कभी जैसे पेड़ पर कुल्हाड़ी बरस रही हो-एक ही ठाय-ठाय लय से।
'ठाकरों में गीत गाने वाला भुत्या था। उस ने बोल सुनाए - ममता से पालीपोसी बेटी/भेज दी पराए घर में,/पराए घर में भेज दी-/अब पिस रही है, कामकाज के रेले में।
'यह कामकाज में पिसना , बजाना था ढोलिया को। वह परण बजाने लगा-एक अनोखी शिलाखंडों पर दौड़ते हुए बाजार जाना,धान की कटाई, मछली पकड़ना-घंटों ढोलिया बजाता रहा और चमत्कृत नाचिये नाचते रहे।
'और आखिर में सारे कामों ये थक कर आई ठाकर लड़की के लिए आती है रात, भूखे पेट का दर्द सहने के लिए सर के नीचे हाथ बाँध कर,पेट उघाड़े आँगन में सो जाने की रात - झोल से निकलने वाली अगम्य भाषा नाचियों को समझ आई तो वे धक ये रह गए। आश्चर्य ये बाहर आने पा उसाँस भरते हुए दोनों हाथ सर के पीछे ले वह भूमि पर लोट गए। घुँघ्रूओं की आवाज सूक्ष्म होती चली गई।
'ढोल अब मद्धम चल रहा था-जैसे ताल थक गया है-उस में एक आक्रंदन है-धरती की शरणागता.....'
क्या वास्तविक जीवन में गोनीदा की किसी ढोलिए ये भेंट हुई होगी? कहाँ,कब?क्या मुझे भी ऐसा कोई ढोलिया देखने को मिल सकता है? या वे ठाकर? इस प्रश्न का उत्तर गोनीदा ने अपने आत्मचरित्र में दिया हैः 'मैंने प्रण किया कि बगैर हाथ फैलाए जो मिलेगा वही अन्न खाऊंगा (यह उन के नर्मदा परिक्रमा आंरभ करने के सकंल्प के समय की बाबत ) और जिस अनुभव की स्वयं प्रतीति होगी वही लेखन करूँगा।'
गोनीदा तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही घर ये भाग निकले थे। नागपुर से मुबई। तब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था।
गोनीदा के मन में किसी ने यह बात भर दी थी कि यदि बहुत सारे युवक-युवती भिड़ जाँए तो देश को एक वर्ष में ही स्वतंत्रता दिलवा सकते हैं। वही प्रण करके, और साल भर बाद स्कूल में वापस लौटने का स्वप्न ले कर वह भागे और मुंबई के कांग्रेस ऑफिस में जा पहुँचे। वहाँ के दुर्दिन भुगते। फिर पूना, अहमदनगर आदि होते हुए उन्हें महाराष्ट्र के तत्कालीन संतश्रेष्ठ श्री गाडगे बाबा का साथ मिला। इसी दौरान उन्होंने अपना वास्तविक नाम छिपाने के लिए गोपाल नाम धारण किया था और अंत तक वही नाम सहेज कर रखा। गाडगे बाबा की अमिट छाप उन के बोलने-बैठने की हूबहू स्टाइल सहित - 'बाबू रे, झोपन भागते का ?अथीसा झाडाले भिडान तर कामाकडे कोन पाहीन! जा,चुलान धडकवा,सैपाकाचे मान्स कामाले भिडवा, चाला,आयस करू नोका!'
गोनीदा ने उपन्यासों में नारी को सदैव सबला के रूप में ही पेश किया है। स्त्र्िायों का स्वभाव, उन के दुख-दर्द , फिर भी उन का स्वाभिमान, उन के पराक्रम , जो भी कर्तव्य है उसे कर दिखाने की उन की अद्भुत शक्ति, यह गोनीदा के सारे उपन्यासों में सशक्त स्प में है। यह नारी शक्ति कहीं तो पुरूष को आश्र्वस्त करती हुई संबल देती है, कहीं उसे सही रास्ते पर लाती है, और कहीं उसे उस के अपराधों की कठोर सजा भी देती है। उपन्यास चाहे नायिका-प्रधान हो, जैसे मृणमयी (हिंदी अनुवाद,अथाह की थाह), पढघवली, या नायक-प्रधान जैसे किसी एक की भ्रमण गाथा, नारी उन में हमेशा एक उज्जवल आलोक बनी रहती है।
गोनीदा के साहित्य में चमत्कृत करने वाली एक विशेषता है उन की भाषा! देखिए कोंकण के टिपिकल र्ब्रा परिवार की भाषा : 'आता गो! हा दुसराही पत्रा काढू कांय!' 'तो कशाला काढतोस मेल्या! बरे, आता आण!'या सहाद्रि के घाट माथे पर बसे मराठा किसानों की भाषा : 'कशी मान्स हैती'खायला घोटभर पेज काय भेटनां झाली! लुगटी फाटून पार चिंध्या व्हाया आल्या!पर जो डाग त्यांचा न्हाई , त्यो त्यान्ला इखाच्या घोटापरमानं वाटुतया! वारं मान्सानू! कुन्या येडया देवानं घडिवलं रे तुमाला!' या नागपुर - वरहाड प्रांत की टिपिकल बोली भाषा -
'अप्पा, बाबासाहेब इतली वाखाननी करतत्, त तुमचा रायगड येकडाव पहाव लागते! दाखवसान् कांय? पर हितनी सम्पन्न घराण्याची मुलं!अस ना म्हटल पाहिजे की अथीसा तर दूधतुपही भेटल नाई, जी!'
एक सुशिक्षित व्यक्ति खड़ी मराठी बोली में अलग बोलेगा, कोंकण का मुसलमान , मुंबई का मुसलमान और मराठवाड़ा का मुसलमान अलग ढंग से बोलेगा। शिवाजीकालीन उपन्यास में भी सरदार की बोली अलग होगी और गाँव गँवई की बोली अलग। शिवाजी से मिलने आए पुर्तगाल-दूत की बोली अलग होगी और शिवाजी के मुस्लिम सिपाहियों की अलग!पुणेरी आदमी के हिंदी का ढंग, नागपुर की हिंदी, बनारस की हिंदी और हरियाणवी हिंदी के झंग अलग-अलग होंगे। ये सारे बदलाव उन के भिन्न-भिन्न पात्र खूबसूरती और सहजता से निभाते है। निश्चय ही गोनीदा की भाषा पर अद्भूत पकड़ थी। पात्र के साथ , स्थल के साथ और काल के अनरूप उन की भाषा बदलती जाती है और एक ही साहित्य कृति में भाषा के कई नमूने पढ़ने को मिल जाते हैं।
गोनीदा के साहित्य की एक और विशेषता यह है कि अपने वर्णनों में वे बड़ी गहराई तक जाते हैं और समग्र विवरण देना अपना फर्ज मानते हैं। रायगड किले पर अंग्रेज अफसरो ने उत्खनन में जो पाया और लिख कर रखा उस का विवरण अपनी दुर्ग भ्रमण गाथा में देते हुए वे लिखते हैं : 'एक टिप्पणी में जानकारी है कि किले पर कितनी तोपे थी। उन में से कईयों के नाम भी लिखे मिले हैं जैसे - तुलजा, भुजंग, रामचंगी,पक्षीण,फत्तेलष्कर, फत्तेजंग,सुंदर,शिवप्रसाद,गणेशवार,चांदणी,नागीण!... लेकिन मुझे किसी मोड़ पर अचानक मिल जाने वाली इन बारह-पंद्रह तोपों में से किस का नाम क्या था कहना मुश्किल है।'
शिवाजीकालीन एक उपन्यास में कोंकण के पंडित ब्राहण का चरित्र है। जब शिवाजी ने सागरी लड़ाई के लिए बेड़े बाँधने का संकल्प किया तो किसी र्ब्रा ने अपने पोथे में से पुराने संस्कृत संदर्भ निकाले जिन में समुद्री बेड़े बाँधने के शस्त्र का विवेचन था, और शिवाजी को उन के अनुरूप मार्गदर्शन किया। लेकिन गोनीदा इस प्राकर एक कपोल-कल्पित प्रसंग की रचना कर रूकते नहीं है। अपने वास्तविक जीवन में उन्होंने कई ग्रंथों का अध्ययन किया था। उन्हीं का लाभ उठाते हुए इस पात्र के माध्यम से वह तमाम श्लोक और संदर्भ पाठकों के सामने रखते है, यथाःलघुयत्कोमलं काष्ठ्र सुघटं ब्रहमजातितद्।/दृदांगं लघुयत्काष्ठं सुघटं क्षत्रजातितद्॥/लघुता दृढता चैव गमिताद्मच्छिद्रता तथा।/ समतेति गुणोद्देशो नौकायां संप्राशितः॥/क्षुद्रा मध्यमा भीमा चपला पटलाद्मभया।/ दीर्घा पत्रपुटा चैव गर्भरा मंथरा तथा॥
एक अन्य जगह ब्राह्ण्ण शिवाजी को बताता हैः काष्ठाजं धातुज चैव मंदिरं द्विविध भवेत्,'अर्थात् बड़ी नौका पर दीर्घकालीन निवास के लिए दो तरह के कमरे बनाने चाहिए-एक केवल लकडी का और दूसरा धतुमिश्रित।
महाराष्ट्र के श्रेष्ठ आदि-संत कवि ज्ञानेश्र्वर की अत्यंत अद्भुत जीवनी को गोनीदा के उपन्यास मोगरा फुलला में चित्रित किया गया है। ज्ञानेश्र्वर आज से सात सौ वर्ष पूर्व, तेरहवीं सदी के संत थे। माना जाता है कि उन का ग्रंथ ज्ञानेश्र्वरी , जो भगवद्गीता पर मराठभ् भाषा में टीेका है, शांकरभाष्य के समकक्ष है। इसी कृति में ज्ञानेश्र्वरी में कहा गया हैः हे
रसिक और भावक श्रोतागण, सुनें, मैं अपनी मराठी भाषा में ऐसे अक्षर (यहाँ अर्थ शब्द और भावनाएँ) जुआऊँगा कि जो ग्रंथ रचना आप के लिए करूँगा वह अमृत से भी मीठी होगी - शर्त लगा लें।'ऐसे मीठे ग्रंथ से भी मीठी है ज्ञानेश्र्वर की 'विराणि' - अर्थात् वे विरह गीत जो एक भक्त प्रेमिका ने कृष्ण के लिए गाए है। 'मोगरा फुलला' भी एक प्रसिद्ध विराणि है (मोगराउबेला)! 'मेरे प्रेम की बेल इस मोगरे की तरह है-आंगन में इसे जतन ये लगाया, सींचा और इस के सैकड़ौं फूलों ने खिल कर विठ्ठल के प्रति मेरे प्रेम की सुंगध गगन मंडल तक पहुँचा दी।) यही नाम गोनीदा ने अपने उपन्यास के लिए चुना। ज्ञानेश्र्वर के बड़े भाई और गुरू निवृत्त्िानाथ, छोटे भाई सोपानदेव और सब से छोटी बहन मुक्ताबाई, चारों ही श्रेष्ठ संतकवि थे, हरेक की अपनी-अपनी उपलब्धियाँ थीं। सारे एक साथ जिए, समाज के सारे अपमान और सम्मान पचाए और ज्ञानेश्र्वर के समाधि लेने के पश्चात् एक-एक का हरेक ने समाधि ग्रहण की। इस से पूर्व ज्ञानेश्र्वर और नामदेव ने पूरे उम्मरी भारत का भ्रमण किया। पंझरपुर की विठ्ठल-मूर्ति से कभी दूर न जाने की प्रतिज्ञा करने वाले नामदेव ज्ञानेश्र्वर के प्रेम में डूब कर इस भ्रमण पर निकले। ज्ञानेश्र्वर ने समाधि ली तो नामदेव फिर एक बार भ्रमण पर निकले और पंढरपुर वापस नहीं लौटे। नामदेव की हिंदी रचनाएँ गुरू ग्रंथ साहेब ने और सिच साहित्य ने सभाँल कर रखी हैं।
ऐसे महान संत की न केवल जीवनी, बल्कि उन की कृतियों का रस ग्रहण और सार ग्रहण और उन के समूचे जीवन दर्शन को उपन्यास में उतारना अत्यंत कठिन काम है। लेकिन शायद कलादेवता ने स्वयं गोनीदा में प्रवेश कर उन से य कार्य करवाया है।
गोनीदा की ग्रंथ-संपदा विशाल और प्रतिभा बहुमुखी थी। किसी विषय को चुन का उस पर पिल पड़ना उन की आदत थी। गाडगे बाबा के साथ रहे तो ऐसे कीर्तन करते और करवाते रहे जो सात दिन, दस दिन चले और जिस में बीस हजार तक का श्रोता-समुदाय उपस्थित रहा। फिर ठानी कि संतश्रेष्ठ तुकाराम और ज्ञानेश्र्वर को पूरा पढ़ डालूँगा और गुँनूगा। फिर ज्ञानेश्र्वरी और शांकरभाष्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए संस्कृत और गीता की भी पढ़ाई की। नर्मदा की परिक्रमा की,महाराष्ट्र के हर दुर्ग और किले में दसियों बार घूमे। शिवाजी के चरित्र का अध्ययन और मनन किया तो उस कालखंड पर छह उपन्यास लिख डाले। पडघवली और मृण्यमयी की पृष्ठभूमि कोंकण की है। माचीवरला बुधा, पवनाकाठचा घोंडी, जैत रे जैत की पृष्ठभूमि सह्ाद्रि के पूर्वी घाट की है। मोगरा फुलला मराठवाडा की पृष्ठभूमि में है। किसी एक की भ्रमण गाथा नर्मदा परिसर की पृष्ठभूमि में है तो भगीरथ के पुत्र की पृष्ठभूमि पंजाब की है। बगैर उस इलाके का पूरा अध्ययन किए कुछ भी न लिखने के प्रण ने इन सारे उपन्यासों को एक अद्भुत जीवंतता दी है। महाराष्ट्र में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले मराठी साहित्य सम्मेलन के १९८१ के सत्र के लिए गोनीदा अध्यक्ष चुने गए थे। दो वर्ष पूर्व,जुलाई १९९८ में तलेगाँव में उन का निधन हुआ।
गोनीदा की रचनाओं का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता हैः
सामाजिक उपन्यास १५;देश विभाजन की पार्श्र्वभूमि पर २; शिवाजी - कालीन ६;ऐतिहासिक /संत गाथा/पौराणिक १०;कथा संग्रह २;नाटक/संगीतमय नाटक ४;प्रवास वर्णन ८;किशोर वाङमय ३०१ उन के उपन्यासों का हिंदी, अंग्रजी,गुजराती तथा सिन्धी भाषा में अनुवाद हुआ है। करीब बीस पारितोषिक या मान-सम्मान से उन्हें विभूषित किया गया।
मृण्मयी पुरस्कार : पिछले आठ वर्षों से गोनीदा ने 'मृण्मयी पुरस्कार' देना आरंभ किया था जिस की राशि सात हजार रूपए है। यह या तो उन नए लेखकों को दिया जाता है जिन की रचना गोनीदा को पंसद आई हो, या फिर उन की रूचि के क्षेत्र में कार्य करने वाली किसी संस्था या व्यक्ति को दिया जाता है, यथा - संत वाङमय के या महाराष्ट्र के पर्वत और किलों के अध्ययन के लिए।
समकालीन (हिंदी सागित्य अकादमी की मासिक पत्रिका) में प्रकाशित
गोनीदा महाराष्ट्र के सुपरिचित साहित्यकार थे। गोनीदा या गोपाल नीलकंठ दांडेकर की पहचान एक गहरी संवेदना रखने वाले जिजीवषु लेखक के रूप में है। करीब पैंतीस उपन्यासों के अलावा उन्होंने महाराष्ट्र के दुर्गों और किलों पर लिखा है, प्रवास वर्णन लिखे है और किशोर-साहित्य भी लिखा है।
गोनीदा के लेखन की कुछ खास विशेषताएँ हैं। केवल मनुष्य इन के लेखन के पात्र नहीं होते,बल्कि भूगोल, स्थल-काल और माहौल भी सशक्त पात्र बनकर सामने आते हैं। आप ललचा उठते हैं खुद चल कर वह स्थान देचाने के लिए जिस का वर्णन किया गया है। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे स्थल ही मुख्य नायक है। उदाहरणस्वरूप,मैं ने १९७५ में भाखढ़ा नांगल बाँध देखा था और कुछ ही समय बाद उन की रचना पढ़ी 'भगीरथ के पुत्र'! यह उन इंजीनियरों की विजय गाथा है जिन्होंने भाखड़ा नांगल बाँध बांधा था। याद रहे कि स्वतंत्र भारत में भारतीय लोगों के द्वारा बनाया गया यह पहला बांध था। पूरा एपन्यास पढ़ते हुए लग रहा था कि अभी वापस चल कर दुबारा भाखड़ा नांगल बांध देखूँ तो वह मुझ से बातें करने को तत्पर होगा। यही बात उन के अन्य उपन्यास जैत रे जैत,पडघवली,मृणमयी,माचीवरला बुधा,पवनाकाठचा धोंडी आदि में भी देखने को मिलती है। वे केवल स्थलों का बार-बार और बारीकी से विवरण नहीं देते बल्कि उस खिचांव का भी वर्णन करते हैं। जिस की ताकत से कथा के पात्र वहाँ खिंचे चले आते हैं।
पडघवली उपन्यास की नायिका ब्याह कर कोंकण प्रदेश के इस छोटे से गाँव में आती है और अपने सत्व के बलपर परिवार के और गाँव के भी कुछ दुर्जानों से अपनी न्याय की लड़ाई लड़ती है। लेकिन उस की लड़ाई में पडघवली गाँव की माटी भी शरीक है जिस से रोत उस का घर लीपा-पोता जाता है और जो उस के खेतों के, आगँन के धान-पौधों को अपना रस देती है। वह समुद्र भी उन का साथी बनता है जिस के पास वह अपना सुख-दुख बाँटने आती है। अंततः पडघवली का वह समाज भी उस की लड़ाई में उस के साथ उतर आता है जो साधारणतया दुर्जानों के विरूद्ध अकर्मण्यता बनाए रखने में ही अपनी उपलब्धि मानता है।
कम ही साहित्यिकों को यह सौभाग्य मिलता है कि उन की किताबें पढ़ कर पाठक पूछे कि भई यह व्यक्ति खुद कैसे बना! कैसा जीवन उस ने जिया होगा,क्या-क्या अनुभव कहाँ-कहाँ से गाँठ में जोड़े होंगे जो वह ऐसा लिख पाया। यही प्रयन गोनीदा के विषय में भी उभरता है।
उन का उपन्यास जैत रे जैत ही लिजिए जिस पर आगे चल कर एक पुरस्कृत फिल्म बनी। सहाद्रि पर्वत की विशाल दर्रा-कंदराओं के अंदर बसे ठाकर आदिवासियों की जीवनी पर यह उपन्यास है। चरित नायक एक ढोल बजाने वाला ठाकर है। उस की प्रतिभा का वर्ण्न देखिए। 'ढोल का घनगंभीर नाद अब पहाड़ियों से टकराने लगा। ढोल एक अलग ही चलन से अलग-अलग गतियों से चलने लगा। कभी वह सिर पर लकड़ियों का बोझ उठाए बाजार में बेचने जाती ठाकर युवती की चाल से चलता तो कभी मोर के नाचने की। कभीयों जैसे आकाश में बादल गरज रहे हों और पूरी छाती में थरथराहट भर देता, तो कभी सावन की रिमझिम फुहार की गति, जो शरीर को हौले से भिगोती चली जाए। कभी जैसे पेड़ पर कुल्हाड़ी बरस रही हो-एक ही ठाय-ठाय लय से।
'ठाकरों में गीत गाने वाला भुत्या था। उस ने बोल सुनाए - ममता से पालीपोसी बेटी/भेज दी पराए घर में,/पराए घर में भेज दी-/अब पिस रही है, कामकाज के रेले में।
'यह कामकाज में पिसना , बजाना था ढोलिया को। वह परण बजाने लगा-एक अनोखी शिलाखंडों पर दौड़ते हुए बाजार जाना,धान की कटाई, मछली पकड़ना-घंटों ढोलिया बजाता रहा और चमत्कृत नाचिये नाचते रहे।
'और आखिर में सारे कामों ये थक कर आई ठाकर लड़की के लिए आती है रात, भूखे पेट का दर्द सहने के लिए सर के नीचे हाथ बाँध कर,पेट उघाड़े आँगन में सो जाने की रात - झोल से निकलने वाली अगम्य भाषा नाचियों को समझ आई तो वे धक ये रह गए। आश्चर्य ये बाहर आने पा उसाँस भरते हुए दोनों हाथ सर के पीछे ले वह भूमि पर लोट गए। घुँघ्रूओं की आवाज सूक्ष्म होती चली गई।
'ढोल अब मद्धम चल रहा था-जैसे ताल थक गया है-उस में एक आक्रंदन है-धरती की शरणागता.....'
क्या वास्तविक जीवन में गोनीदा की किसी ढोलिए ये भेंट हुई होगी? कहाँ,कब?क्या मुझे भी ऐसा कोई ढोलिया देखने को मिल सकता है? या वे ठाकर? इस प्रश्न का उत्तर गोनीदा ने अपने आत्मचरित्र में दिया हैः 'मैंने प्रण किया कि बगैर हाथ फैलाए जो मिलेगा वही अन्न खाऊंगा (यह उन के नर्मदा परिक्रमा आंरभ करने के सकंल्प के समय की बाबत ) और जिस अनुभव की स्वयं प्रतीति होगी वही लेखन करूँगा।'
गोनीदा तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही घर ये भाग निकले थे। नागपुर से मुबई। तब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था।
गोनीदा के मन में किसी ने यह बात भर दी थी कि यदि बहुत सारे युवक-युवती भिड़ जाँए तो देश को एक वर्ष में ही स्वतंत्रता दिलवा सकते हैं। वही प्रण करके, और साल भर बाद स्कूल में वापस लौटने का स्वप्न ले कर वह भागे और मुंबई के कांग्रेस ऑफिस में जा पहुँचे। वहाँ के दुर्दिन भुगते। फिर पूना, अहमदनगर आदि होते हुए उन्हें महाराष्ट्र के तत्कालीन संतश्रेष्ठ श्री गाडगे बाबा का साथ मिला। इसी दौरान उन्होंने अपना वास्तविक नाम छिपाने के लिए गोपाल नाम धारण किया था और अंत तक वही नाम सहेज कर रखा। गाडगे बाबा की अमिट छाप उन के बोलने-बैठने की हूबहू स्टाइल सहित - 'बाबू रे, झोपन भागते का ?अथीसा झाडाले भिडान तर कामाकडे कोन पाहीन! जा,चुलान धडकवा,सैपाकाचे मान्स कामाले भिडवा, चाला,आयस करू नोका!'
गोनीदा ने उपन्यासों में नारी को सदैव सबला के रूप में ही पेश किया है। स्त्र्िायों का स्वभाव, उन के दुख-दर्द , फिर भी उन का स्वाभिमान, उन के पराक्रम , जो भी कर्तव्य है उसे कर दिखाने की उन की अद्भुत शक्ति, यह गोनीदा के सारे उपन्यासों में सशक्त स्प में है। यह नारी शक्ति कहीं तो पुरूष को आश्र्वस्त करती हुई संबल देती है, कहीं उसे सही रास्ते पर लाती है, और कहीं उसे उस के अपराधों की कठोर सजा भी देती है। उपन्यास चाहे नायिका-प्रधान हो, जैसे मृणमयी (हिंदी अनुवाद,अथाह की थाह), पढघवली, या नायक-प्रधान जैसे किसी एक की भ्रमण गाथा, नारी उन में हमेशा एक उज्जवल आलोक बनी रहती है।
गोनीदा के साहित्य में चमत्कृत करने वाली एक विशेषता है उन की भाषा! देखिए कोंकण के टिपिकल र्ब्रा परिवार की भाषा : 'आता गो! हा दुसराही पत्रा काढू कांय!' 'तो कशाला काढतोस मेल्या! बरे, आता आण!'या सहाद्रि के घाट माथे पर बसे मराठा किसानों की भाषा : 'कशी मान्स हैती'खायला घोटभर पेज काय भेटनां झाली! लुगटी फाटून पार चिंध्या व्हाया आल्या!पर जो डाग त्यांचा न्हाई , त्यो त्यान्ला इखाच्या घोटापरमानं वाटुतया! वारं मान्सानू! कुन्या येडया देवानं घडिवलं रे तुमाला!' या नागपुर - वरहाड प्रांत की टिपिकल बोली भाषा -
'अप्पा, बाबासाहेब इतली वाखाननी करतत्, त तुमचा रायगड येकडाव पहाव लागते! दाखवसान् कांय? पर हितनी सम्पन्न घराण्याची मुलं!अस ना म्हटल पाहिजे की अथीसा तर दूधतुपही भेटल नाई, जी!'
एक सुशिक्षित व्यक्ति खड़ी मराठी बोली में अलग बोलेगा, कोंकण का मुसलमान , मुंबई का मुसलमान और मराठवाड़ा का मुसलमान अलग ढंग से बोलेगा। शिवाजीकालीन उपन्यास में भी सरदार की बोली अलग होगी और गाँव गँवई की बोली अलग। शिवाजी से मिलने आए पुर्तगाल-दूत की बोली अलग होगी और शिवाजी के मुस्लिम सिपाहियों की अलग!पुणेरी आदमी के हिंदी का ढंग, नागपुर की हिंदी, बनारस की हिंदी और हरियाणवी हिंदी के झंग अलग-अलग होंगे। ये सारे बदलाव उन के भिन्न-भिन्न पात्र खूबसूरती और सहजता से निभाते है। निश्चय ही गोनीदा की भाषा पर अद्भूत पकड़ थी। पात्र के साथ , स्थल के साथ और काल के अनरूप उन की भाषा बदलती जाती है और एक ही साहित्य कृति में भाषा के कई नमूने पढ़ने को मिल जाते हैं।
गोनीदा के साहित्य की एक और विशेषता यह है कि अपने वर्णनों में वे बड़ी गहराई तक जाते हैं और समग्र विवरण देना अपना फर्ज मानते हैं। रायगड किले पर अंग्रेज अफसरो ने उत्खनन में जो पाया और लिख कर रखा उस का विवरण अपनी दुर्ग भ्रमण गाथा में देते हुए वे लिखते हैं : 'एक टिप्पणी में जानकारी है कि किले पर कितनी तोपे थी। उन में से कईयों के नाम भी लिखे मिले हैं जैसे - तुलजा, भुजंग, रामचंगी,पक्षीण,फत्तेलष्कर, फत्तेजंग,सुंदर,शिवप्रसाद,गणेशवार,चांदणी,नागीण!... लेकिन मुझे किसी मोड़ पर अचानक मिल जाने वाली इन बारह-पंद्रह तोपों में से किस का नाम क्या था कहना मुश्किल है।'
शिवाजीकालीन एक उपन्यास में कोंकण के पंडित ब्राहण का चरित्र है। जब शिवाजी ने सागरी लड़ाई के लिए बेड़े बाँधने का संकल्प किया तो किसी र्ब्रा ने अपने पोथे में से पुराने संस्कृत संदर्भ निकाले जिन में समुद्री बेड़े बाँधने के शस्त्र का विवेचन था, और शिवाजी को उन के अनुरूप मार्गदर्शन किया। लेकिन गोनीदा इस प्राकर एक कपोल-कल्पित प्रसंग की रचना कर रूकते नहीं है। अपने वास्तविक जीवन में उन्होंने कई ग्रंथों का अध्ययन किया था। उन्हीं का लाभ उठाते हुए इस पात्र के माध्यम से वह तमाम श्लोक और संदर्भ पाठकों के सामने रखते है, यथाःलघुयत्कोमलं काष्ठ्र सुघटं ब्रहमजातितद्।/दृदांगं लघुयत्काष्ठं सुघटं क्षत्रजातितद्॥/लघुता दृढता चैव गमिताद्मच्छिद्रता तथा।/ समतेति गुणोद्देशो नौकायां संप्राशितः॥/क्षुद्रा मध्यमा भीमा चपला पटलाद्मभया।/ दीर्घा पत्रपुटा चैव गर्भरा मंथरा तथा॥
एक अन्य जगह ब्राह्ण्ण शिवाजी को बताता हैः काष्ठाजं धातुज चैव मंदिरं द्विविध भवेत्,'अर्थात् बड़ी नौका पर दीर्घकालीन निवास के लिए दो तरह के कमरे बनाने चाहिए-एक केवल लकडी का और दूसरा धतुमिश्रित।
महाराष्ट्र के श्रेष्ठ आदि-संत कवि ज्ञानेश्र्वर की अत्यंत अद्भुत जीवनी को गोनीदा के उपन्यास मोगरा फुलला में चित्रित किया गया है। ज्ञानेश्र्वर आज से सात सौ वर्ष पूर्व, तेरहवीं सदी के संत थे। माना जाता है कि उन का ग्रंथ ज्ञानेश्र्वरी , जो भगवद्गीता पर मराठभ् भाषा में टीेका है, शांकरभाष्य के समकक्ष है। इसी कृति में ज्ञानेश्र्वरी में कहा गया हैः हे
रसिक और भावक श्रोतागण, सुनें, मैं अपनी मराठी भाषा में ऐसे अक्षर (यहाँ अर्थ शब्द और भावनाएँ) जुआऊँगा कि जो ग्रंथ रचना आप के लिए करूँगा वह अमृत से भी मीठी होगी - शर्त लगा लें।'ऐसे मीठे ग्रंथ से भी मीठी है ज्ञानेश्र्वर की 'विराणि' - अर्थात् वे विरह गीत जो एक भक्त प्रेमिका ने कृष्ण के लिए गाए है। 'मोगरा फुलला' भी एक प्रसिद्ध विराणि है (मोगराउबेला)! 'मेरे प्रेम की बेल इस मोगरे की तरह है-आंगन में इसे जतन ये लगाया, सींचा और इस के सैकड़ौं फूलों ने खिल कर विठ्ठल के प्रति मेरे प्रेम की सुंगध गगन मंडल तक पहुँचा दी।) यही नाम गोनीदा ने अपने उपन्यास के लिए चुना। ज्ञानेश्र्वर के बड़े भाई और गुरू निवृत्त्िानाथ, छोटे भाई सोपानदेव और सब से छोटी बहन मुक्ताबाई, चारों ही श्रेष्ठ संतकवि थे, हरेक की अपनी-अपनी उपलब्धियाँ थीं। सारे एक साथ जिए, समाज के सारे अपमान और सम्मान पचाए और ज्ञानेश्र्वर के समाधि लेने के पश्चात् एक-एक का हरेक ने समाधि ग्रहण की। इस से पूर्व ज्ञानेश्र्वर और नामदेव ने पूरे उम्मरी भारत का भ्रमण किया। पंझरपुर की विठ्ठल-मूर्ति से कभी दूर न जाने की प्रतिज्ञा करने वाले नामदेव ज्ञानेश्र्वर के प्रेम में डूब कर इस भ्रमण पर निकले। ज्ञानेश्र्वर ने समाधि ली तो नामदेव फिर एक बार भ्रमण पर निकले और पंढरपुर वापस नहीं लौटे। नामदेव की हिंदी रचनाएँ गुरू ग्रंथ साहेब ने और सिच साहित्य ने सभाँल कर रखी हैं।
ऐसे महान संत की न केवल जीवनी, बल्कि उन की कृतियों का रस ग्रहण और सार ग्रहण और उन के समूचे जीवन दर्शन को उपन्यास में उतारना अत्यंत कठिन काम है। लेकिन शायद कलादेवता ने स्वयं गोनीदा में प्रवेश कर उन से य कार्य करवाया है।
गोनीदा की ग्रंथ-संपदा विशाल और प्रतिभा बहुमुखी थी। किसी विषय को चुन का उस पर पिल पड़ना उन की आदत थी। गाडगे बाबा के साथ रहे तो ऐसे कीर्तन करते और करवाते रहे जो सात दिन, दस दिन चले और जिस में बीस हजार तक का श्रोता-समुदाय उपस्थित रहा। फिर ठानी कि संतश्रेष्ठ तुकाराम और ज्ञानेश्र्वर को पूरा पढ़ डालूँगा और गुँनूगा। फिर ज्ञानेश्र्वरी और शांकरभाष्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए संस्कृत और गीता की भी पढ़ाई की। नर्मदा की परिक्रमा की,महाराष्ट्र के हर दुर्ग और किले में दसियों बार घूमे। शिवाजी के चरित्र का अध्ययन और मनन किया तो उस कालखंड पर छह उपन्यास लिख डाले। पडघवली और मृण्यमयी की पृष्ठभूमि कोंकण की है। माचीवरला बुधा, पवनाकाठचा घोंडी, जैत रे जैत की पृष्ठभूमि सह्ाद्रि के पूर्वी घाट की है। मोगरा फुलला मराठवाडा की पृष्ठभूमि में है। किसी एक की भ्रमण गाथा नर्मदा परिसर की पृष्ठभूमि में है तो भगीरथ के पुत्र की पृष्ठभूमि पंजाब की है। बगैर उस इलाके का पूरा अध्ययन किए कुछ भी न लिखने के प्रण ने इन सारे उपन्यासों को एक अद्भुत जीवंतता दी है। महाराष्ट्र में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले मराठी साहित्य सम्मेलन के १९८१ के सत्र के लिए गोनीदा अध्यक्ष चुने गए थे। दो वर्ष पूर्व,जुलाई १९९८ में तलेगाँव में उन का निधन हुआ।
गोनीदा की रचनाओं का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता हैः
सामाजिक उपन्यास १५;देश विभाजन की पार्श्र्वभूमि पर २; शिवाजी - कालीन ६;ऐतिहासिक /संत गाथा/पौराणिक १०;कथा संग्रह २;नाटक/संगीतमय नाटक ४;प्रवास वर्णन ८;किशोर वाङमय ३०१ उन के उपन्यासों का हिंदी, अंग्रजी,गुजराती तथा सिन्धी भाषा में अनुवाद हुआ है। करीब बीस पारितोषिक या मान-सम्मान से उन्हें विभूषित किया गया।
मृण्मयी पुरस्कार : पिछले आठ वर्षों से गोनीदा ने 'मृण्मयी पुरस्कार' देना आरंभ किया था जिस की राशि सात हजार रूपए है। यह या तो उन नए लेखकों को दिया जाता है जिन की रचना गोनीदा को पंसद आई हो, या फिर उन की रूचि के क्षेत्र में कार्य करने वाली किसी संस्था या व्यक्ति को दिया जाता है, यथा - संत वाङमय के या महाराष्ट्र के पर्वत और किलों के अध्ययन के लिए।
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