अगस्त क्रांति
भवन
स्वतंत्रता
दिवस न.जदीक
आ गया है उससे पहले ८ अगस्त के
क्रांति दिवस की यादगार भी
देश में मनाई जाती है। ५६ वर्ष
हो चले उस घटना को जब देश ने
स्वतंत्रता पाई। तरक्की के
कई कपने देखे और कई क्षेत्रों
में तरक्की की भी। फिर भी कुल
जोड़ यही रहा कि आज हम संसार के
कई देशों के मुकाबले में पिछड़े
हुए है। जनसंख्या तथा भूगौलिक
क्षेत्र के रूप में एक विशाल
विस्तृत बहु-आयामी
तथा प्रतिभाशाली देश होते
हुए भी प्रगति और उत्पादकता
के मामले में हमारी गिनती सूची
में बहुत नीचे पाई जाती है।
इस
प्रश्न का उत्तर कोई बहुत कठिन
नहीं कि ऐसा क्यों होता है।
हमारे राष्ट्रीय चरित्र की
कई खूबियाँ है या सच कहा जाए
तो खामियाँ है जो हमारी प्रगति
की राह में बाधा बन बनती है।
ऐसे ही दो नमूनों की बात करने
की इच्छा हुई जब मैंने अगस्त
क्रांति भवन को देखा।
स्थल
देश की राजधानी दिल्ली का शहर,
उसमें
भी साउथ दिल्ली और उसमें भी
भीकाजी कामा प्लेस जैसा मशहूर
काम्पलेक्स। इस काम्पलेक्स
में एक ओर गेल,
हडको,
हयात
रिजेंसी होटल,
ई.आई.एल.,
संरक्षण
भवन जैसी बड़ी-बड़ी
संस्थाए अपने-अपने
पॉश ऑफिसों में बैठी है,
कई बिजनेस
हाऊसिस मौजूद है। उन्हीं के
बीच उनके भवन आर्किटेक्ट से
मेल खाती खूबसूरत सी अगस्त
क्रांति भवन की बिल्डिंग भी
है जो पूरी तरह से खाली पड़ी
है। उसमें कुछ नहीं होता यहाँ
तक की सफाई भी नहीं। और ८अगस्त
के दिवस पर जिसकी याद में यह
बिल्डिंग बनी कोई कार्यक्रम
नहीं होता। इस प्रकार अच्छे
आदर्शों का डंका पीटकर एक बड़ी
बिल्डिंग खड़ी कर देना या एक-आद
दिन उत्सब मना लेना ऐसा आसान
काम है जो हम कर लेते है लेकिंन
खड़ी की गई एक इमारत को समूचित
तरीके से उपयोग में लाना हमें
नहीं आता। चूंकि मेरा कार्यालय
भी भीकाजी कामा प्लेस में ही
है तो अकसर मैं इस बिल्डिंग
को देखती हूँ और आश्चर्य करती
हूँ कि अब तक इस पर अराजक तत्व
के लोगो ने कब्जा कैसे नहीं
किया।
बाहर
हाल ८ अगस्त का दिन हमारे सामने
है और इस यादगार दिन की याद को
संजोए रखने के लिए बनाई गई
खाली पड़ी यह सरकारी बिल्डिंग
भी।
राष्ट्रीय
संपत्त्िा को गवाँने का एक
और काम होता है सरकारी कार्यालयों
में छुट्टी के माध्यम से। एक
ऐसे देश में जो अपनी सांस्कृति
विरासत पर गर्व करता है।
भगवत्-गीता की तथा
उसके कर्मयोग की दुहाई देने
में पीछे नहीं रहता। उसी देश
के प्रशासन में यह गिनती कोई
नहीं करता कि एक साल के कितने
दिन हम छुट्टीयाँ मनाते है।
३६५ दिनें में १०४ दिन शनिवार,
रविवार
की छुट्टीयों के उसके अलावा
१६ दिन सरकारी छुट्टीयों के
फिर हर सरकारी कर्मचारी सालभर
में ८ दिन आकस्मिक छुट्टीयों
के लिए २२ दिन अर्जित छुट्टीयों
के लिए और २० दिन मैडिकल छुट्टीयों
के लिए दिए जाते है। कुल हिसाब
हुआ १७० दिनों का। इस पर तुर्रा
यह कि किसी भी सरकारी कार्यालय
के आधे से अधिक कर्मचारी सीट
पर बैठे नहीं होते। या तो वह
लेट पहुँचेंगे या जल्दी ही
ऑफिस से निकल जाऐंगे। लन्च
ब्रेक भी कागज पर आधे घंटे का
लेंकिन वास्तव में एक से डेढ़
घंटे तक कुछ भी हो सकता है।
इसी माहौल में २० से ३० प्रतिशत
ऐसे भी अधिकारी और कर्मचारी
हैं जो बहुत कम छुट्टी लेते
है और ऑफिस समय से कई अधिक देर
तक काम करते हैं। सच पूछा जाए
तो इन्हीं की बदौलत ऑफिस चलते
भी हैं। लेकिंन पिछले ५६ वर्षों
का ग्राफ तुरंत बता देरा है
कि इनकी संख्या घट रही है।
लोग
अकसर पूछते है कि सरकारी ऑफिसों
में काम क्यूँ नहीं होता और
यदि होता है तो उसका सुपरिणाम
क्यों नहीं दिखता।
कुछ
वर्ष पूर्व मेरे पास दो पन्नों
का एक पैमप्लेट आया जो इंदौर
की किसी संस्था ने प्रकाशित
किया था इसका शीर्षक था 'छुट्टीयाँ
कम करो अभियान'।
लोगो से अपिल की गई थी इस अभियान
में जुटने की और एक फार्म बी
साथ में था। वह तो मैंने भी
भर कर भेज दिया। पर आगे इस
अभियान की बाबत कुछ सुनने में
नहीं आया।
इसका
एक सीधा-सादा
उत्तर तो यह है कि सरकारी ऑफिसो
में छुट्टीयों कि बहुलता है
और काम न करने वाले को इनाम है
कि उनसे कोई सवाल नहीं पूछा
जाएगा और जहाँ तक सवाल है काम
हो जाने का किन्तु सुपरिणाम
न दिखाई पड़ने का तो अगस्त
क्रांति भवन जैसी इमारत की
व्यर्थता इसका जवाब दे सकती
है।
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