मुंबई नामा- स्वाईन फ्लू
1 Jan 2010
अगस्त का महीना मुंबई वासियों के लिये खासे तनाव का रहा। मैं छुट्टियाँ बिताने बेटे के पास अमरीका गई थी कि मुझे फोन आया- स्वाईन फ्लूसे बचिये। पूछनेपर पता चला कि अमरीकामें, खासकर मेक्सिको से जुडे प्रांतोंमें स्वाईन फ्लू का संसर्ग रोग फैला हुआ है और अमरीका से भारत आनेवाले लोगों की बदौलत यहाँ भी फैल रहा है। मैंने सलाहकर्ता को धन्यवाद दिया और अपने कुछ खास प्रतिरोधक उपाय कर लिये। 7 अगस्त को लौटी तो एअरपोर्ट पर देखा करीब चालीस डॉक्टरों की फौज ड्यूटी बजा रही थी- हर आगमित प्रवासी से सर्टिफिकेट लिया जा रहा था कि उसे फ्लू के लक्षण नही हैं। जिन्हें थोडी बहुत तकलीफ थी, उनके लिये तत्काल टेस्टिंग की व्यवस्था थी। उस दिन तक मुंबई - पुणे के इलाके में स्वाईन फ्लू से कोई मौत नही घटी थी। 11 अगस्त को पुणे की एक महिला का दुखद निधन हुआ जो कि पहला हादसा था। तबसे एक एक कर कुछ और भी दुर्घटनाएँ हुईं और अगले पंद्रह दिनों में स्वाईन फ्लू से मरने वालों की संख्या से १० से उपर पहुँच गई। मुंबई में जो तनाव रहा, वह इसी कारण।
इस तनाव में मैंने कुछ बातें नोट कीं। सबसे खास बात थी हमारी स्वास्थ्य नीति से संबंधित। मैंने देखा कि फ्लू के लक्षणों को ऐलोपॅथी तरीके से परीक्षण कर स्वाइन फ्लू का निदान निकलने तक तीन दिन लग जाते हैं। तब तक टॅमीफ्लू की गोली न लेने की सलाह डॉक्टर दे रहे थे। वजह बताई जा रही थी कि निरोगी व्यक्ति में अनावश्यक टॅमीफ्लू लेने से कई खतरनाक दुष्परिणाम हैं। उन दिनों टॅमी फ्लू गोलियों का स्टॉक भी नही था। जैसे ही स्टॉक बढा- तुरंत सरकारी घोषणा हो गई कि अब लैबेरेटरी के निष्कर्ष तक रुको मत- जिसे लक्षण दिखे उसे टॅमीफ्लू दे दो।
उधर मीडीया हाइप भी कुछ इस प्रकार था कि हडकंप मच जाये। क्या यह पूरा खेला टॅमीफ्लू दवाई बेचने का था? क्यों कि इन्हीं पंद्रह दिनों के दौरान हमारी सरकार ने टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियाँ खरीदकर देशभऱ के अस्पतालों और डॉक्टरों को मुहैय्या करवाईं।
मन्तव्य है कि जिस बक्स्टर कंपनी ने यह दवाई बनाई है उसकी बाबत स्वयं WHO ने कहा कि इस दवाई के अभी तक वे परीक्षण पूरे नही हुए हैं जो कि WHO के मानदण्ड माने जाते हैं, लेकिन WHO को उम्मीद है कि बक्सटर कंपनी ने अपनी तईं जो परीक्षण किये वे प्रोफेशनल ईमानदारी से किये होंगे अतः WHO के अपने परीक्षण न होने के बावजूद इस दवाई से कोई खतरा नही होगा।
उधर कंपनीने मेक्सिको के स्वाईनफ्लू के लिये बडे पैमाने पर गोलियोंका उत्पादन किया होगा और मेक्सिको में तो वह बिमारी काबू में भी आ गई। फिर गोलियाँ कहाँ बेचें? तो भारत हमेशा एक अच्छा, शक न करनेवाला बाजार मिल जाता है।
बहरहाल, कंपनी और WHO की नीतियों को छोडें और अपनी सरकारी नीतियों को देखें।सरकारी नीति यह है कि स्वास्थ्य मंत्री और स्वास्थ्य सचिव को देश की डॉक्टरी क्षमता की पूरी खबर है। उन्हें पता है कि देश में इतने डॉक्टर्स हैं, इतने सरकारी अस्पताल, इतने प्राइबेट अस्पताल, इतनी टेस्टिंग लॅब्ज! यह हुआ हार्डवेअर। सॉफ्टवेअर का भी पता है- मसलन टेस्टिंग में इतने दिन लागते हैं, स्वाईन फ्लू की WHO सर्टिफाइड दवा नही निकली है, टॅमीफ्लू का शॉर्टेज है, फ्लू के लिये कोई ऍलोपॅथी दवा असर नही करती- बस!
जो उन्हें नही पता और न वे जानना चाहते हैं वह ये कि अपनी इस इंडिया में एक भारत भी है। इंडियन गव्हर्नमेंट का स्वास्थ्य विभाग है, पर भारत सरकार के पास कोई स्वास्थ्य विभाग नही है- केवल आयुष् नामका विभाग है जहाँ से आयुर्वेदिक या होमियोपॅथी या योग, यूनानी इत्यादि द्वारा इलाज बताया जाता है। इन सभी पॅथीयों का पहला नुस्खा है कि रोग होने की नौबत ही न आने दो- पथ्य- विचार करो और प्रिवेन्टिव तरीके अपनाओ। तुलसी, काली मिर्च, सौंठ आदि का काढा लेने पर फ्लू में प्रिवेन्शन अर्थात् रोग आने से
पहले और रोग आने के बाद भी फायदा होता है। उसी प्रकार होमियोपॅथी में फ्लू के लिये नॅट्रम मूर और नेट्रम सल्फ का मिश्रण (बायोकेमिक दवा) और कई अन्य होमियोपॅथिक दवाइयाँ हैं। प्राणायम करते रहो तो भी फ्लू से बचाव हो जाता है। लेकिन भारतीयों के आयुष् विभाग को इंडियनों के स्वास्थ्य संबंधी कोई भी सलाह देने का या इंडिया गवर्नमेंट की स्वास्थ्य नीति में शामिल होने का हक नही है। इसी लिये महाराष्ट्र में भी हालाँकि एक ही सचिव के पास आयुष् विभाग भी है और मेडिकल कॉलेजेस और उनसे जुडे सभी बडे अस्पतालों का मॅनेजमेंट भी। फिर भी आयुष् विभाग का कोई रोल नही है। सूचना प्रसारण विभाग के इश्तहार केवल इतना बताते हैं- डरें नहीं, इलाज करायें- हेल्प लाइन पर संपर्क करें। लेकिन आयुष् के सिध्दान्तों में समाहित प्रिवेन्शन के तरीके की कोई बात ही नही करता।
हाँ, सरकार की सोच पहले कुछ दिनों तक यह रही की प्रिवेन्शन के लिये भीड भाड को रोका जाय। पुणे में स्कूल बंद हुए तो हरेक शहर में स्कूल बंद करने की माँग हुई। लेकिन मुंबई में रोजाना लोकलसे लाखों लोग भारी भीड को झेलते हुए सफर करते हैं- दूर दूर से अपने काम के दफ्तर पहुँचते हैं, उन्हें कैसे कहा जाय कि भीड से बचो?
इसी बीच जन्माष्टमी का त्योहार आया। मुंबई में दहीहण्डी की प्रथा खासियत रखती है। ऊँचाई पर टंगी दही हण्डी फोडने के लिये नौजवानों की टोलियाँ घूमती हैं और एकपर एक चढकर ऊँचाई तक पहुँचने का प्रयास करती हैं। उनकी इनाम राशी में करोंडोंका लेनदेन होता है। दर्शकों की भीड भी हजारों की होती है। उनसे कहा गया- भीड मत करो, दहीहण्डी का उत्सव मत करो। लोगों ने धैर्य दिखाया और दही हण्डी का उत्सव नही के बराबर रहा। जाहिर है कि करोडों का लेनदेन खटाई में गया- अगला गणेशोत्सव सर पर था- उसमें कई हजार करोड का लेनदेन होता है। क्या वह भी खटाई में जायगा? इस प्रश्न पर मानसिकता बदली। अब नेता लोगोंने स्वाइन फ्लू को धता बताते हुए गणोशोत्सव की तैयारी की। सामान्य जन तो वैसे भी गणेश-भक्ति के रंग में थे। अब मीडीया भी पलटी। “स्वाईन फ्लू का कहर बरपा” वाले हेडलाइन की जगह “लोगों ने धैर्य का परिचय दिया” की स्ट्रिप न्यूज शुरू हुई।
सरकारी रवैये में और एक बात देखने को मिली। लोग मास्क पहन रहे थे, टेस्टिंग के लिये अस्पताल में लाइन लगा रहे थे, परेशान हो रहे थे, अस्पतालों में इतने घबराये लोगों को एक साथ झेलने की क्षमता भी नही थी। लेकिन सरकार की ओर से कुछ नही कहा गया। जब प्रधानमंत्रीने स्वयं रिव्यू करने की घोषणा की तब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री टीवी पर आकर बोलने लगे। तब मुंबईमें भी पहले मुख्यमंत्री, फिर आरोग्य सचिव फिर निदेशक, फिर सरकारी अस्पतालोंके डीन और पीएसएम (प्रिवेन्टिव सोशेल मेडिसिन) के डीन बोले। मुझे लगा कि अच्छे लोकतंत्र में इसका उलटा होना चाहिये और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप की आवश्यकता भी नही पडनी चाहिये।
इसी दौरान एक परेशान करनेवाला टीवी कार्यक्रम देखा- इकलौता।
दिल्ली की किसी राष्टीय सुरक्षा शोध संस्था के निदेशक बता रहे थे कि किस तरह चीन अपनी सैनिक क्षमता तेजी से बढा रहा है और नुमाना में भारत की तैयारी कितनी कम है। हो न हो कहीं चीन युद्ध की तैयारी न कर रहा हो। ऐसे समय में हमारा पूरा ध्यान क्या स्वाईन फ्लू में ही अटका रहेगा, जिसके प्रिवेन्टिव इलाज के प्रति और आयुर्वेदादि इलाजों के प्रति कोई लोक- जागरण नही है। राजकीय चर्चा चलती रहती है कि मुख्यमंत्री को खुद मास्क लगाकर मिसाल कायम करनी चाहिये या नही।
खैर, गणेशोत्सव में लाखों की भीड ने बता दिया कि स्वाईन फ्लू कोई महामारी वाला खतरा नही है। हाँ इतना अवश्य है कि साधारण फ्लू में मरने का खतरा नही है- स्वाईन फ्लू पर वक्त रहते इलाज न करने पर खतरा है। अब टॅमीफ्लू की कई लाख गोलियाँ भी आयात हो चुकी हैं, निजी अस्पतालों में भी बाँटी गई हैं कि खतरा लगे- तो गटक जाओ। टेस्टिंग की हरेक किट का खर्च होता है करीब दस हजार - वह भी एक टेस्ट का। ऐसे हजारों किट भी आयात हो चुके हैं। हमारी ICMR या हाफकिन जैसी संस्थाएँ अपने शोधकार्य के बलबूते पर ऐसा किट बनाने की क्षमता क्यों नही रखतीं- यह चर्चा अगले दस वर्षों में कभी किसी सेमिनार में हो जायगी। ऐसे मौके पर हम तुलसी- काढा, प्राणायाम, नेट्रम सल्फ आदि की बात या प्रयोग(एक्सपेरीमेंट और ऍप्लीकेशन दोनों अर्थों में) क्यों नही करते, यह सवाल कभी नही उठेगा क्यों कि यह इंडिया व्हर्सेस भारत का झगडा है।
लीना. मेहेंदले
३१.८.०९
बुधवार, 22 जुलाई 2015
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