मालूम ही नहीं कि सुभाष स्वतंत्रता सेनानी
थे
एक छोटा समाचार पढने को मिला कि जब जानकारी के अधिकार के तलह नेताजी सुभाष
चंद्र बोस के स्वतंत्रता सैनिक होने की बाबत जानकारी माँगी गई तो केंद्रीय गृह
मंत्रालय ने उत्तर दिया गया कि फाइलों से उनके स्वतंत्रता सैनिक होने की जानकारी
नहीं मालूम होती ! इसलिये हम नहीं जानते की सुभाष चंद्र बोस
स्वतंत्रता सैनिक थे -- या नहीं !
एक छोटासा सवाल-- और उसने एक बडे अंधेरे को उजाले में ला दिया ! कोई
सोचेगा कि यह अंधेरा अज्ञान का था ! नहीं, यह
तो अकृतज्ञता का अंधेरा था ! यह अंधेरा था राष्ट्रमूल्यों की अवहेलना
का, यह अंधेरा हमें क्या मनोवृत्ती का ! यह अंधेरा था नहीं सुधरेंगे वाली जित का ! यह
अंधेरा था ग्लोबलाइजेशन के जमाने में राष्ट्र मूल्य खो बैठे लोगों की संवेदनाहीनता
का !
या
इसे उच्च कोटि की सत्यवादिता कहेंगे आप? जो मालूम न था, तो
कह दिया कि मालूम नहीं ! जो फाईलों में नहीं देखा तो लिखकर दे दिया कि
फाईलों में नहीं है ! फिर
इसे कोई गलत क्यों मान रहे हैं !
क्यों भाई, क्या आपके यहाँ मन की चुभन जैसी भी कोई चीज
होती है? कुछ बातें ऐसी होती हैं कि उनके फाइल में न होने की बात लिखते हुए भी चुभन के
मारे हाथ से पेन छूट जाना चाहिए !
करोडपति प्रोग्राम में सवाल पूछिये कि बीडी जलाइये किसने लिखा -- तो लोग मस्ती में झूमते हुए, बीडी की धुन पर शिरकते हुए इसका सही
जबाब देंगे !
फिर उनसे पूछिये अगला सवाल -- एक
करोड रूपये के लिए -- कि जय हिंद का नारा अपने देश को किसने दिया? सब
करोडपति स्क्रीन छोड कर भाग निकलेंगे ! है ना? फिर
फइलों का क्या दोष? जो
बात के.बी.सी. को मालूम नहीं हो वह फईलों को कैसे मालूम होगी?
लेकिन कुछ पुराने जमाने के लोग हैं ! उनके ज्ञान का अनुभव और उसी के साथ आई हुई अकड के कारण लिये शब्द है-- बूढा उल्लू तो कुछ ऐसे ही बूढे उल्लूओं ने कान खडे किये, पंख
फडफडाए, आँखे मिचमिचाई और अपनी बूढी खर्ज आवाज में कहा-- मालूम
क्यों नहीं?
वो तो थे ! आई.सी.एस. जैसी
उच्चतम परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद भी इस देश के लिए उस नौकरी को ठुकराकर
देश में लौट आये थे ! वो तो थे ! कलकत्ता म्युनिसिपल
कार्पोरेशन में पहले मुख्य अधिकारी और १९३१ में मेयर भी रहे ! इसी
दौरान उन्होंनें इंडियन नेशनल काँग्रेस की अक्टिव्ह सदस्यता ले ली थी और उनका
राजकीय कार्य आरंभ हो चुका था !
वो
तो थे ! भारतीय स्वतंत्रता की लढाई के लिये १९३७ में जो कलकत्ता अधिवेशन हुआ उसकी भव्य
रैली के संयोजक थे और पंडित जवाहरलाल के कंधे से कंधा मिलाकर रैली की अगुवाई कर थे
! अगले ही वर्ष १९३८ में वे इंडियन नेशनल काँग्रेस के अध्यक्ष बने -- उस वर्ष उन्होंने देश की पहली प्लानिंग रिपोर्ट पेश की ! साथ
ही यह मुद्दा भी छेड दिया कि अब हमें पूर्ण स्वराज्य की माँग करनी चाहिये !
वो तो थे ! हमारी इतिहास की पुस्तकों में भी थे ! उनके
विचार और जनचेतना की मुहिम से डरकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया था ! फिर
जेल में उनकी तबियत खराब होने का बहाना मिला तो उन्हें छोड भी दिया लेकिन हाऊस
अरेस्ट में रखा ! वहाँ से वे भाग निकले और पहुँचे देश के उत्तर
पश्चिमी छोर पर ! वहाँ से पठान का भेस धारण कर पख्खुनिस्तान, अफगानिस्तान
के रास्ते यूरोप पहुचे ! वहाँ से फिर बर्मा, और
आजाद हिंद सेना की स्थापना !
उस
जेल में काटे उन दिनों की और हाऊस अरेस्ट की बात तो फाईलों में होगी ! हमें
नहीं लगता कि ब्रिटिश राज्यकाल में किसी ने उन फाइलों को डी क्लास में डाला होगा -- अर्थात वो फाईलें जो केवल तात्कालिक कामकाज की हैं -- जिन्हें एक वर्ष बाद नष्ट कर देने के आदेश है ! और १९६० व १९७० के
दशक में भी किसी ने उन्हें डी क्लासिफय करने की धृष्टता नहीं की होगी ! बाद
में वे अन्य फइलों की गठ्ठरों के नीचे दब गई होंगी और अब भी वहीं पडी होंगी !
वो
तो थे ! अंदमान के रॉस आयलैंड पर १९४१ में जपानी सिपाहियों के साथ भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम के सेनानी के नाते आये और तिरंगा फहराया ! वह जगह आज भी स्मारक
की तौर पर सुरक्षित है-- यह बात भी फाइलों में होगी !
वो
तो थे -- चलो दिल्ली का नारा देकर उनकी आजाद हिन्द सेना ( अर्थात् हिंदुस्तान
को आजादी दिलाने के लिये लडने वालों की फौज ) रंगून के रास्ते नागालैंड
के कोहिमा तक पहुँची और ब्रिटिशों को हराकर हिंदुस्तान की सरजमीन पर कदम रखा ! उस
लढाई में मारे गए ब्रिटिश सैनिकों का स्मारक कोहिमा में आज भी सुरक्षित रखा जा रहा
है- तो उन सरकारी फाइलों में भी कहीं न कहीं वो मिल ही जायेंगे ना !
जब
ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि आजाद हिंद सेना से सिपाहियों और अधिकारिंयों पर
राष्ट्रद्रोह का मुकादमा चलाया जायोगा, तब आजाद हिंद सेना की वकालत
का जिम्मा खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिया ! क्या 'ब्रीफ' बनाया
था पंडितजी ने? क्या थी उनकी जलील? कि
ये आजाद हिंद सेना देश को लूटने वाले चोर, डकैत, लुटेरों
की टोली है?
या फिर ये कि यह प्राण हथेली पर रखकर देश की स्वतंत्रता के
लिए मर मिटने वालों की सेना है? क्या उस सेना का हर सिपाही और उनका
सेनापति भी स्वतंत्रता की लढाई का सिपाही नहीं था? क्या किसी की यह
दलील है कि पंडितजी को स्वतंत्रता की लडाई जैसी कोई बात मंजूर नहीं थी? पूछ
लीजीये करोडपति में कि लाहौर के १९३९ के इंडियन नेशनल कांग्रेस के अधिवेशन में
पूर्ण स्वराज्य की माँग किसने रखी थी? उत्तर है-- स्वयं पंडित जवाहरलाल ने ! तो फिर पूर्ण स्वराज्य के लिये लडनेवाली
आजाद हिंद सेना का सेनापति स्वतंत्रता सैनिक कैसे नहीं हुआ?
सरकार का ही एक संगठन है -- केंद्रिय विद्यालय जो पूरे देशभर में
स्कूल चलाता है ! इनके लिये पुस्तकें तैयार करने का काम भी एक
सरकारी संगठन करती है-- जिसका नाम है एन.सी.ई.आर.टी. ! उनकी ८वी,
९वी, १०वी कक्षा की बालभारती पढ जाइये तो कहीं पर ये
चार पंक्तियाँ मिलेंगी --
आजानूबाहू ऊंची करके वे बोले रक्त मुझे देना !
इसके बदले में भारत की आजादी तुम मुझसे लेना !!
तो अब देखना है कि क्या किताबें सरकारी फाइलों का रिकार्ड ठीक करेंगी या फाइल
किताबों का?
लेकिन पहले एक अहम् सवाल ! सुओ मोटू (suo-motu) नोट करने की भी एक व्यवस्था अपने शासन तंत्र में है ! क्या फाइलों को
वह भी मालूम नही है?
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दै नवभारत टाइम्स
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