शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

इस चुनाव में मैं बेजुबान -हिंदुस्तान

 इस चुनाव में मैं बेजुबान -हिंदुस्तान

      इस चुनाव में मैं बेजुबान
लीना मेहेंदले

       भारतीय प्रजातंत्र में कुछ नया घटा है। हमारे राष्ट्रपति महोदय, जिनमें लोगों को अभूतपूर्व अपनापन और उम्मीदें दीख रही हैंस्वयं आगे आए और राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हुए सभी नागरिकों का आवाहन किया कि वे अपना मताधिकार अवश्य दर्शाएँ- चुनाव के दिन मत डालने जाएँ और प्रजातंत्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाएँ। अब उम्मीद है कि एक नई बात और भी होगी।
      पिछले दो तीन चुनावों से कई लोग मानने लगे हैं कि जो भी प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतरते हैं उनमें से कोई भी लायक नही है।  कईयों का पुलिस रेकॉर्ड ऐसा रहा है जिन्हें सभ्य भाषा में बाहुबली कहा जा सकता है। कईयों के पास ऐसी अकूत संपत्त्िा है कि आम आदमी समझता है कि यह बगैर छल-बल के नही कमाई है, भले ही कोर्ट में उनपर कोई गुनाह साबित हुआ हो। ईमानदारी और सज्जनता को सुप्रशासन की पहली शर्त मानने वाला नागरिक इन प्रत्याशियों को अपने मत का हकदार नही मानता। ऐसी हालत में मतदाता किसके नाम पर मोहर लगाए? मराठी में कहावत है- एक तरफ आग और दूसरी तरफ पैरों को जलाने वाली भीषण तपी हुई जमीन हो तो आदमी किधर कदम रखें? राष्ट्रपति के कहे अनुसार मतदान कर्तव्य तो है लेकिन क्या कर्तव्य यह भी है कि आप अग्राह्य व्यक्ति पर समर्थन की मुहर भी लगाएँ?
      चुनावी मतदान के ऑकडे बताते हैं कि देश के केवल ५० से ७० प्रतिशत लोग मतदान करते हैं। कभी-कभी मतदान को अनिवार्य बनाने की बात चलती है। लेकिन ऐसा कानून बना भी लिया तो उसका अनुपालन सरकार किस तरह करवाएगी? केवल मतदान केंद्र पर जाने से क्या होता है? यदि एक भी प्रत्याशी पसंद हो तो मतदाता क्या करे यह प्रश्न फिर भी बाकी रहेगा।
      इस प्रश्न के लिए यदि हम प्रजातंत्र के मूल सिद्धान्त पर जाएँ तो देखते हैं कि लोगों का लोगों के लिए, लोगों द्वारा, चलाया गया तंत्र है प्रजातंत्र ! लोगों के द्वारा चलाने का अर्थ है, अपने चुने हुए प्रतिनिधि के मार्फत चलाया गया। इसी लिए प्रजातंत्र में हरेक मत की कीमत होती है और उसे अभिव्यक्त करने का मौका दिया जाता है। चुनाव में तो इस अभिव्यक्ति का मौका मिलना सर्वोपरि आवश्यक है।
      इसी से चर्चा होती रही है कि मतपत्रिका में एक विकल्प यह भी हो जो दुनियाँ को बताए कि हमें कोई पसंद नही है। तभी तो मतदाता की अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान होगा। यदि ऐसे सभी अनास्था मतों की गिनती की जाए तो अंदाज लगाइए कि यह कितनी बडी होगी। हमारे देश में 'दि पिपुल्स रिप्रेझेंटेशन ऍक्ट १८५१' के अंतर्गत चुनाव करवाए जाते हैं। चुनाव संबंधी सभी नियम इसी कानून के अंतर्गत बनाए जाते हैं। इन नियमों को संशोधित कर उसमें यह विकल्प डालना पडेगा कि जिसे कोई प्रत्याशी पसंद हो वह मतदाता भी चुनावी मतपेटी में अपनी आवाज बुलंद कर सकता है- वह भी अपने नाम की गोपनीयता रखते हुए। संशोधित नियम में यह भी प्रावधान किया जा सकता है कि यदि सभी प्रत्याशियों के बाबत भारी संख्या में मतदाताओं ने नापसंदगी दिखलाई तो चुनावी अधिकारी इस पर कारवाई करेंगे।
      उदाहरण स्वरूप मान लीजिए की किसी चुनावी क्षेत्र में दस लाख मतदाता हैं। यदि किसी को पांच लाख मत मिल गए तो वह निर्विवाद रूप से बहुमत का हकदार माना जा सकता है। लेकिन व्यवहार में ऐसा नही होता। कई प्रत्याशी हों, मत बँट जाए, भारी प्रतिशत से मतदान हुआ हो....... इत्यादि कारणों से अक्सर जीतने वाले उम्मीदवार के मत कम ही होते हैं। कभी कभी एक लाख मत मिलने पर भी प्रत्याशी जीत सकता है। अतः हमें पचास प्रतिशत की बात सोचना जरूरी नही। लेकिन कल्पना करें कि चुनाव आयोग ने नियम बनाया कि यदि दस प्रतिशत मतदाता सभी उम्मीदवारों को नापसंद करते हों तो दुबारा चुनाव होंगे। ऐसी हालत में नाराजी दर्शाने वाले की भारी ताकत होगी। यदि यह नियम बनाया जाय कि पहले वाले सभी प्रत्याशी या कम से कुछ प्रत्याशी दूसरी बारी में खडे नही हो सकेंगे, तब तो अनास्था मत का महत्व और भी बढेगा।  फिर जीत की इच्छा रखने वाले प्रत्याशी के लिए इतना पर्याप्त नही होगा कि वह ज्यादा वोट ले ले। उसे यह भी देखना होगा कि लोग अनास्था मत दें- भले ही वह मत दूसरे प्रत्याशी को क्यों चला जाय। दूसरी तरफ मतदाता की अनास्था कम होगी और वह भारी संख्या में या तो अपने पसंदीदा प्रत्याशी के लिए आगे बढेगा या फिर यह कहने के लिए कि सभी को संसद से दूर रखो।
      अब सवाल है कि यह सारी चर्चा चुनाव आयोग के कान तक क्यों नही जाती? क्यों कि हम प्रयास नही करते। हममे से कितने चुनाव आयोग और राष्ट्रपति के महाजालस्थली यानी वेबसाईट पर जाकर उनके पास अपना आग्रह भेजने को तत्पर हैं- कि ऐसा हो? तमाम समाचार चैनल आपसे च्ग्च्  पर छिट-पुट निरापद सवालों के उत्तर पूछते रहते हैं- मसलन क्या धरमजी को केशों में कलफ लगाना चाहिए। लेकिन कोई नही पूछता कि क्या आप मतपत्रिका में अपनी नापसंदगी और नाराजगी जताने का विकल्प भी चाहते हैं?
      अर्थात मतदाता चुनावी बूथ पर जाए, किसी किसी नापसंद प्रत्याशी के नाम को समर्थन दे और अपने, तथा समाज के पैरों पर कुल्हाडी मार लें। यह कैसा कर्तव्य पालन है?
      यदि मतदान करना देश के नागरिक का कर्तव्य है तो क्या यह देश के प्रशासन, संसद मंडल, और चुनाव आयोग का कर्तव्य नही कि वे मुझे यह कहने का मौका दें कि चुनावी मैदान में डटा कोई भी उम्मीदवार मुझे पसंद नही- मैं उनमें किसी को भी मेरा प्रतिनिधित्व करने के लायक नही पाती, मैं उन्हें सांसद-पद और मंत्रीपद देकर मुझपर शासन करने का हक नही देना चाहती। मुझे यदि यह कहना हो तो आज मेरी जुबान बंद रखनी पडेगी- मेरा मत भी खिडकी से बाहर फेंकना पडेगा।
      एक दो महीने पहले चुनाव आयोग के विचार के लिए यह प्रश्न आया था कि क्या नापसंदगी जताने की सुविधा भी मतपत्रिका में दी जाए? तो चुनाव आयोग ने कहा- नही, अभी नही। अभी हम इसके लिए तैयार नही।

      किस बात के लिए तैयार नही हैं? क्या डर है चुनाव आयोग या प्रशासन या संसद- मंडल को? कहीं यह डर मुखरता का तो नही !
      जब लोगों को अपनी भावना व्यक्त करने का मौका मिलता है, तो उनकी चेतना और उनका क्षोभ दोनों पूरी तरह से उभर आते हैं।  केवल इतना कहने का मौका दीजिए कि मुझे कोई उम्मीदवार सही नही लगता और यह गोपनीयता रखते हुए मतपेटी के माध्यम से कहने का अवसर दीजिए। फिर देखिए कि इस एक प्रकटीकरण से कितनी बडी भारी जागृति आती है, उम्मीदें जगती हैं, और लोगों में इच्छा पनपने लगती है कि वे कुछ और भी कहें- चाहे सुझाव चाहे अपनी व्यथा चाहे अपनी आकांक्षाएँ।
      जॉर्ज ऑरवेल ने इस बात को बडी खूबसूरती से अपनी प्रसिद्ध उपन्यास १९८४ में समझाया है। उपन्यास का खलनायक एक तानाशाह है। वह सत्ता में आते ही सबसे पहले सारी डिक्शनरियों को जला देता है। वह एक नई शब्दावली बनाता है जिसमें शब्दसंख्या बहुत कम है। उसका तर्क यह है कि लोगों के पास समुचित शब्द होंगे, उनकी भावनाएँ समुचित रूप से व्यक्त होंगी, क्रान्ति होगी। च्द्यठ्ठद्यद्वद्म द्दद्वदृ रखने का सबसे अच्छा उपाय है कि लोग सोचें नहीं, अपनी सोच को लागों के साथ बाँटें नहीं, अपने विचारों को नए कार्यक्रम में बदलें नहींकोई नई विचारधारा शुरू हो, जो जैसा चल रहा है, वैसा ही चले।
      यदि मतपत्रिका के माध्यम से यह कहने का मौका मिले कि कोई प्रत्याशी सही नही लगता, तो यह अभिव्यक्ति स्वतंत्रता कौन नही चाहेगा?
      आज भी देश के साठ-सत्तर प्रतिशत नागरिक मतदान को पवित्र कर्तव्य मानते हुए पोलिंग बूथ पर जाते हैं, यह एक अच्छी संभावना है। इनमें से कई ऐसे हैं जो दिल से किसी उम्मीदवार को पसंद नही करते। जो तीस चालिस प्रतिशत नही जाते, उनमें से भी कई ऐसे हैं जो चाहते हैं कि यदि उन्हें अनास्था मत दर्शाने का अवसर दिया गया तो वे जाकर अपनी नापसंदगी जरूर दर्ज कराएंगे। यही बात है जो चुनाव आयोग को और पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाएगी।
      चुनाव आयोग या प्रत्याशी एक तर्क दे सकते हैं कि यदि आपको कोई प्रत्याशी पसंद नही है, तो आप अपने मनपसंद का उम्मीदवार क्यों नही मैदान में उतारतेइस बात को समझना जरूरी है। जबतक बाहुबली और करोडपती चुनाव में उतरते रहेंगे तब तक कोई सज्जन कैसे उनके मुकाबले में खडा होने की सोचेगा। सज्जनों की हिम्मत बढे, उनमें आत्मविश्र्वास जगे इसलिए जरूरी है कि उन्हें पता हो कि कितनी भारी संख्या में लोगों ने पहले लॉट को नापसंद किया है। कितने लोगों ने गुप्तता बरकरार रखते हुए अपने आपको मतपत्रिका के माध्यम से व्यक्त किया है।
      जो चाहते हैं कि अच्छे और सज्जन लोग राजनीति में आएं, उनकी आवाज को, उनकी जुबान को संगठित करने का एक मौका तो जनाब चुनाव आयोग ने खो दिया। अब मुझ जैसा बेजुबान मतदाता अपने पवित्र कर्तव्य अर्थात्‌ मतदान का निर्वाह करे तो कैसे करें।

पता : ई-१८, बापूधाम, सेन्ट मार्टिन मार्ग, नई दिल्ली - ११००२१



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