बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

गोनी दांडेकर

गोनी दांडेकर
समकालीन (हिंदी सागित्य अकादमी की मासिक पत्रिका) में प्रकाशित
गोनीदा महाराष्ट्र के सुपरिचित साहित्यकार थे। गोनीदा या गोपाल नीलकंठ दांडेकर की पहचान एक गहरी संवेदना रखने वाले जिजीवषु लेखक के रूप में है। करीब पैंतीस उपन्यासों के अलावा उन्होंने महाराष्ट्र के दुर्गों और किलों पर लिखा है, प्रवास वर्णन लिखे है और किशोर-साहित्य भी लिखा है।
गोनीदा के लेखन की कुछ खास विशेषताएँ हैं। केवल मनुष्य इन के लेखन के पात्र नहीं होते,बल्कि भूगोल, स्थल-काल और माहौल भी सशक्त पात्र बनकर सामने आते हैं। आप ललचा उठते हैं खुद चल कर वह स्थान देचाने के लिए जिस का वर्णन किया गया है। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे स्थल ही मुख्य नायक है। उदाहरणस्वरूप,मैं ने १९७५ में भाखढ़ा नांगल बाँध देखा था और कुछ ही समय बाद उन की रचना पढ़ी 'भगीरथ के पुत्र'! यह उन इंजीनियरों की विजय गाथा है जिन्होंने भाखड़ा नांगल बाँध बांधा था। याद रहे कि स्वतंत्र भारत में भारतीय लोगों के द्वारा बनाया गया यह पहला बांध था। पूरा एपन्यास पढ़ते हुए लग रहा था कि अभी वापस चल कर दुबारा भाखड़ा नांगल बांध देखूँ तो वह मुझ से बातें करने को तत्पर होगा। यही बात उन के अन्य उपन्यास जैत रे जैत,पडघवली,मृणमयी,माचीवरला बुधा,पवनाकाठचा धोंडी आदि में भी देखने को मिलती है। वे केवल स्थलों का बार-बार और बारीकी से विवरण नहीं देते बल्कि उस खिचांव का भी वर्णन करते हैं। जिस की ताकत से कथा के पात्र वहाँ खिंचे चले आते हैं।
पडघवली उपन्यास की नायिका ब्याह कर कोंकण प्रदेश के इस छोटे से गाँव में आती है और अपने सत्व के बलपर परिवार के और गाँव के भी कुछ दुर्जानों से अपनी न्याय की लड़ाई लड़ती है। लेकिन उस की लड़ाई में पडघवली गाँव की माटी भी शरीक है जिस से रोत उस का घर लीपा-पोता जाता है और जो उस के खेतों के, आगँन के धान-पौधों को अपना रस देती है। वह समुद्र भी उन का साथी बनता है जिस के पास वह अपना सुख-दुख बाँटने आती है। अंततः पडघवली का वह समाज भी उस की लड़ाई में उस के साथ उतर आता है जो साधारणतया दुर्जानों के विरूद्ध अकर्मण्यता बनाए रखने में ही अपनी उपलब्धि मानता है।
कम ही साहित्यिकों को यह सौभाग्य मिलता है कि उन की किताबें पढ़ कर पाठक पूछे कि भई यह व्यक्ति खुद कैसे बना! कैसा जीवन उस ने जिया होगा,क्या-क्या अनुभव कहाँ-कहाँ से गाँठ में जोड़े होंगे जो वह ऐसा लिख पाया। यही प्रयन गोनीदा के विषय में भी उभरता है।
उन का उपन्यास जैत रे जैत ही लिजिए जिस पर आगे चल कर एक पुरस्कृत फिल्म बनी। सहाद्रि पर्वत की विशाल दर्रा-कंदराओं के अंदर बसे ठाकर आदिवासियों की जीवनी पर यह उपन्यास है। चरित नायक एक ढोल बजाने वाला ठाकर है। उस की प्रतिभा का वर्ण्न देखिए। 'ढोल का घनगंभीर नाद अब पहाड़ियों से टकराने लगा। ढोल एक अलग ही चलन से अलग-अलग गतियों से चलने लगा। कभी वह सिर पर लकड़ियों का बोझ उठाए बाजार में बेचने जाती ठाकर युवती की चाल से चलता तो कभी मोर के नाचने की। कभीयों जैसे आकाश में बादल गरज रहे हों और पूरी छाती में थरथराहट भर देता, तो कभी सावन की रिमझिम फुहार की गति, जो शरीर को हौले से भिगोती चली जाए। कभी जैसे पेड़ पर कुल्हाड़ी बरस रही हो-एक ही ठाय-ठाय लय से।
'ठाकरों में गीत गाने वाला भुत्या था। उस ने बोल सुनाए - ममता से पालीपोसी बेटी/भेज दी पराए घर में,/पराए घर में भेज दी-/अब पिस रही है, कामकाज के रेले में।
'यह कामकाज में पिसना , बजाना था ढोलिया को। वह परण बजाने लगा-एक अनोखी शिलाखंडों पर दौड़ते हुए बाजार जाना,धान की कटाई, मछली पकड़ना-घंटों ढोलिया बजाता रहा और चमत्कृत नाचिये नाचते रहे।
'और आखिर में सारे कामों ये थक कर आई ठाकर लड़की के लिए आती है रात, भूखे पेट का दर्द सहने के लिए सर के नीचे हाथ बाँध कर,पेट उघाड़े आँगन में सो जाने की रात - झोल से निकलने वाली अगम्य भाषा नाचियों को समझ आई तो वे धक ये रह गए। आश्चर्य ये बाहर आने पा उसाँस भरते हुए दोनों हाथ सर के पीछे ले वह भूमि पर लोट गए। घुँघ्रूओं की आवाज सूक्ष्म होती चली गई।
'ढोल अब मद्धम चल रहा था-जैसे ताल थक गया है-उस में एक आक्रंदन है-धरती की शरणागता.....'
क्या वास्तविक जीवन में गोनीदा की किसी ढोलिए ये भेंट हुई होगी? कहाँ,कब?क्या मुझे भी ऐसा कोई ढोलिया देखने को मिल सकता है? या वे ठाकर? इस प्रश्न का उत्तर गोनीदा ने अपने आत्मचरित्र में दिया हैः 'मैंने प्रण किया कि बगैर हाथ फैलाए जो मिलेगा वही अन्न खाऊंगा (यह उन के नर्मदा परिक्रमा आंरभ करने के सकंल्प के समय की बाबत ) और जिस अनुभव की स्वयं प्रतीति होगी वही लेखन करूँगा।'
गोनीदा तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही घर ये भाग निकले थे। नागपुर से मुबई। तब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था।
गोनीदा के मन में किसी ने यह बात भर दी थी कि यदि बहुत सारे युवक-युवती भिड़ जाँए तो देश को एक वर्ष में ही स्वतंत्रता दिलवा सकते हैं। वही प्रण करके, और साल भर बाद स्कूल में वापस लौटने का स्वप्न ले कर वह भागे और मुंबई के कांग्रेस ऑफिस में जा पहुँचे। वहाँ के दुर्दिन भुगते। फिर पूना, अहमदनगर आदि होते हुए उन्हें महाराष्ट्र के तत्कालीन संतश्रेष्ठ श्री गाडगे बाबा का साथ मिला। इसी दौरान उन्होंने अपना वास्तविक नाम छिपाने के लिए गोपाल नाम धारण किया था और अंत तक वही नाम सहेज कर रखा। गाडगे बाबा की अमिट छाप उन के बोलने-बैठने की हूबहू स्टाइल सहित - 'बाबू रे, झोपन भागते का ?अथीसा झाडाले भिडान तर कामाकडे कोन पाहीन! जा,चुलान धडकवा,सैपाकाचे मान्स कामाले भिडवा, चाला,आयस करू नोका!'
गोनीदा ने उपन्यासों में नारी को सदैव सबला के रूप में ही पेश किया है। स्त्र्िायों का स्वभाव, उन के दुख-दर्द , फिर भी उन का स्वाभिमान, उन के पराक्रम , जो भी कर्तव्य है उसे कर दिखाने की उन की अद्भुत शक्ति, यह गोनीदा के सारे उपन्यासों में सशक्त स्प में है। यह नारी शक्ति कहीं तो पुरूष को आश्र्वस्त करती हुई संबल देती है, कहीं उसे सही रास्ते पर लाती है, और कहीं उसे उस के अपराधों की कठोर सजा भी देती है। उपन्यास चाहे नायिका-प्रधान हो, जैसे मृणमयी (हिंदी अनुवाद,अथाह की थाह), पढघवली, या नायक-प्रधान जैसे किसी एक की भ्रमण गाथा, नारी उन में हमेशा एक उज्जवल आलोक बनी रहती है।
गोनीदा के साहित्य में चमत्कृत करने वाली एक विशेषता है उन की भाषा! देखिए कोंकण के टिपिकल र्ब्रा परिवार की भाषा : 'आता गो! हा दुसराही पत्रा काढू कांय!' 'तो कशाला काढतोस मेल्या! बरे, आता आण!'या सहाद्रि के घाट माथे पर बसे मराठा किसानों की भाषा : 'कशी मान्स हैती'खायला घोटभर पेज काय भेटनां झाली! लुगटी फाटून पार चिंध्या व्हाया आल्या!पर जो डाग त्यांचा न्हाई , त्यो त्यान्ला इखाच्या घोटापरमानं वाटुतया! वारं मान्सानू! कुन्या येडया देवानं घडिवलं रे तुमाला!' या नागपुर - वरहाड प्रांत की टिपिकल बोली भाषा -
'अप्पा, बाबासाहेब इतली वाखाननी करतत्‌, त तुमचा रायगड येकडाव पहाव लागते! दाखवसान्‌ कांय? पर हितनी सम्पन्न घराण्याची मुलं!अस ना म्हटल पाहिजे की अथीसा तर दूधतुपही भेटल नाई, जी!'
एक सुशिक्षित व्यक्ति खड़ी मराठी बोली में अलग बोलेगा, कोंकण का मुसलमान , मुंबई का मुसलमान और मराठवाड़ा का मुसलमान अलग ढंग से बोलेगा। शिवाजीकालीन उपन्यास में भी सरदार की बोली अलग होगी और गाँव गँवई की बोली अलग। शिवाजी से मिलने आए पुर्तगाल-दूत की बोली अलग होगी और शिवाजी के मुस्लिम सिपाहियों की अलग!पुणेरी आदमी के हिंदी का ढंग, नागपुर की हिंदी, बनारस की हिंदी और हरियाणवी हिंदी के झंग अलग-अलग होंगे। ये सारे बदलाव उन के भिन्न-भिन्न पात्र खूबसूरती और सहजता से निभाते है। निश्चय ही गोनीदा की भाषा पर अद्भूत पकड़ थी। पात्र के साथ , स्थल के साथ और काल के अनरूप उन की भाषा बदलती जाती है और एक ही साहित्य कृति में भाषा के कई नमूने पढ़ने को मिल जाते हैं।
गोनीदा के साहित्य की एक और विशेषता यह है कि अपने वर्णनों में वे बड़ी गहराई तक जाते हैं और समग्र विवरण देना अपना फर्ज मानते हैं। रायगड किले पर अंग्रेज अफसरो ने उत्खनन में जो पाया और लिख कर रखा उस का विवरण अपनी दुर्ग भ्रमण गाथा में देते हुए वे लिखते हैं : 'एक टिप्पणी में जानकारी है कि किले पर कितनी तोपे थी। उन में से कईयों के नाम भी लिखे मिले हैं जैसे - तुलजा, भुजंग, रामचंगी,पक्षीण,फत्तेलष्कर, फत्तेजंग,सुंदर,शिवप्रसाद,गणेशवार,चांदणी,नागीण!... लेकिन मुझे किसी मोड़ पर अचानक मिल जाने वाली इन बारह-पंद्रह तोपों में से किस का नाम क्या था कहना मुश्किल है।'
शिवाजीकालीन एक उपन्यास में कोंकण के पंडित ब्राहण का चरित्र है। जब शिवाजी ने सागरी लड़ाई के लिए बेड़े बाँधने का संकल्प किया तो किसी र्ब्रा ने अपने पोथे में से पुराने संस्कृत संदर्भ निकाले जिन में समुद्री बेड़े बाँधने के शस्त्र का विवेचन था, और शिवाजी को उन के अनुरूप मार्गदर्शन किया। लेकिन गोनीदा इस प्राकर एक कपोल-कल्पित प्रसंग की रचना कर रूकते नहीं है। अपने वास्तविक जीवन में उन्होंने कई ग्रंथों का अध्ययन किया था। उन्हीं का लाभ उठाते हुए इस पात्र के माध्यम से वह तमाम श्लोक और संदर्भ पाठकों के सामने रखते है, यथाःलघुयत्कोमलं काष्ठ्र सुघटं ब्रहमजातितद्।/दृदांगं लघुयत्काष्ठं सुघटं क्षत्रजातितद्॥/लघुता दृढता चैव गमिताद्मच्छिद्रता तथा।/ समतेति गुणोद्देशो नौकायां संप्राशितः॥/क्षुद्रा मध्यमा भीमा चपला पटलाद्मभया।/ दीर्घा पत्रपुटा चैव गर्भरा मंथरा तथा॥
एक अन्य जगह ब्राह्ण्ण शिवाजी को बताता हैः काष्ठाजं धातुज चैव मंदिरं द्विविध भवेत्‌,'अर्थात्‌ बड़ी नौका पर दीर्घकालीन निवास के लिए दो तरह के कमरे बनाने चाहिए-एक केवल लकडी का और दूसरा धतुमिश्रित।
महाराष्ट्र के श्रेष्ठ आदि-संत कवि ज्ञानेश्र्वर की अत्यंत अद्भुत जीवनी को गोनीदा के उपन्यास मोगरा फुलला में चित्रित किया गया है। ज्ञानेश्र्वर आज से सात सौ वर्ष पूर्व, तेरहवीं सदी के संत थे। माना जाता है कि उन का ग्रंथ ज्ञानेश्र्वरी , जो भगवद्गीता पर मराठभ् भाषा में टीेका है, शांकरभाष्य के समकक्ष है। इसी कृति में ज्ञानेश्र्वरी में कहा गया हैः हे
रसिक और भावक श्रोतागण, सुनें, मैं अपनी मराठी भाषा में ऐसे अक्षर (यहाँ अर्थ शब्द और भावनाएँ) जुआऊँगा कि जो ग्रंथ रचना आप के लिए करूँगा वह अमृत से भी मीठी होगी - शर्त लगा लें।'ऐसे मीठे ग्रंथ से भी मीठी है ज्ञानेश्र्वर की 'विराणि' - अर्थात्‌ वे विरह गीत जो एक भक्त प्रेमिका ने कृष्ण के लिए गाए है। 'मोगरा फुलला' भी एक प्रसिद्ध विराणि है (मोगराउबेला)! 'मेरे प्रेम की बेल इस मोगरे की तरह है-आंगन में इसे जतन ये लगाया, सींचा और इस के सैकड़ौं फूलों ने खिल कर विठ्ठल के प्रति मेरे प्रेम की सुंगध गगन मंडल तक पहुँचा दी।) यही नाम गोनीदा ने अपने उपन्यास के लिए चुना। ज्ञानेश्र्वर के बड़े भाई और गुरू निवृत्त्िानाथ, छोटे भाई सोपानदेव और सब से छोटी बहन मुक्ताबाई, चारों ही श्रेष्ठ संतकवि थे, हरेक की अपनी-अपनी उपलब्धियाँ थीं। सारे एक साथ जिए, समाज के सारे अपमान और सम्मान पचाए और ज्ञानेश्र्वर के समाधि लेने के पश्चात्‌ एक-एक का हरेक ने समाधि ग्रहण की। इस से पूर्व ज्ञानेश्र्वर और नामदेव ने पूरे उम्मरी भारत का भ्रमण किया। पंझरपुर की विठ्ठल-मूर्ति से कभी दूर न जाने की प्रतिज्ञा करने वाले नामदेव ज्ञानेश्र्वर के प्रेम में डूब कर इस भ्रमण पर निकले। ज्ञानेश्र्वर ने समाधि ली तो नामदेव फिर एक बार भ्रमण पर निकले और पंढरपुर वापस नहीं लौटे। नामदेव की हिंदी रचनाएँ गुरू ग्रंथ साहेब ने और सिच साहित्य ने सभाँल कर रखी हैं।
ऐसे महान संत की न केवल जीवनी, बल्कि उन की कृतियों का रस ग्रहण और सार ग्रहण और उन के समूचे जीवन दर्शन को उपन्यास में उतारना अत्यंत कठिन काम है। लेकिन शायद कलादेवता ने स्वयं गोनीदा में प्रवेश कर उन से य कार्य करवाया है।
गोनीदा की ग्रंथ-संपदा विशाल और प्रतिभा बहुमुखी थी। किसी विषय को चुन का उस पर पिल पड़ना उन की आदत थी। गाडगे बाबा के साथ रहे तो ऐसे कीर्तन करते और करवाते रहे जो सात दिन, दस दिन चले और जिस में बीस हजार तक का श्रोता-समुदाय उपस्थित रहा। फिर ठानी कि संतश्रेष्ठ तुकाराम और ज्ञानेश्र्वर को पूरा पढ़ डालूँगा और गुँनूगा। फिर ज्ञानेश्र्वरी और शांकरभाष्य के तुलनात्मक अध्ययन के लिए संस्कृत और गीता की भी पढ़ाई की। नर्मदा की परिक्रमा की,महाराष्ट्र के हर दुर्ग और किले में दसियों बार घूमे। शिवाजी के चरित्र का अध्ययन और मनन किया तो उस कालखंड पर छह उपन्यास लिख डाले। पडघवली और मृण्यमयी की पृष्ठभूमि कोंकण की है। माचीवरला बुधा, पवनाकाठचा घोंडी, जैत रे जैत की पृष्ठभूमि सह्‌ाद्रि के पूर्वी घाट की है। मोगरा फुलला मराठवाडा की पृष्ठभूमि में है। किसी एक की भ्रमण गाथा नर्मदा परिसर की पृष्ठभूमि में है तो भगीरथ के पुत्र की पृष्ठभूमि पंजाब की है। बगैर उस इलाके का पूरा अध्ययन किए कुछ भी न लिखने के प्रण ने इन सारे उपन्यासों को एक अद्भुत जीवंतता दी है। महाराष्ट्र में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले मराठी साहित्य सम्मेलन के १९८१ के सत्र के लिए गोनीदा अध्यक्ष चुने गए थे। दो वर्ष पूर्व,जुलाई १९९८ में तलेगाँव में उन का निधन हुआ।
गोनीदा की रचनाओं का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता हैः
सामाजिक उपन्यास १५;देश विभाजन की पार्श्र्वभूमि पर २; शिवाजी - कालीन ६;ऐतिहासिक /संत गाथा/पौराणिक १०;कथा संग्रह २;नाटक/संगीतमय नाटक ४;प्रवास वर्णन ८;किशोर वाङमय ३०१ उन के उपन्यासों का हिंदी, अंग्रजी,गुजराती तथा सिन्धी भाषा में अनुवाद हुआ है। करीब बीस पारितोषिक या मान-सम्मान से उन्हें विभूषित किया गया।
मृण्मयी पुरस्कार : पिछले आठ वर्षों से गोनीदा ने 'मृण्मयी पुरस्कार' देना आरंभ किया था जिस की राशि सात हजार रूपए है। यह या तो उन नए लेखकों को दिया जाता है जिन की रचना गोनीदा को पंसद आई हो, या फिर उन की रूचि के क्षेत्र में कार्य करने वाली किसी संस्था या व्यक्ति को दिया जाता है, यथा - संत वाङमय के या महाराष्ट्र के पर्वत और किलों के अध्ययन के लिए।

1 टिप्पणी:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

लीना जी आपका स्वागत है
आप जैसे सौभाग्यशाली मित्रों का स्वागत करते हुए मैं बहुत ही गौरवान्वित हूँ कि आपने ब्लॉग जगत मेंपदार्पण किया है. आप ब्लॉग जगत को अपने सार्थक लेखन कार्य से आलोकित करेंगे. इसी आशा के साथ आपको बधाई.
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं,
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